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१२-१४०]
द्वादशोऽधिकारः वीरो वीरगणाप्रणीर्गुणनिधिर्वीरं हि वीराः श्रिताः
___ वीरेणाशु समाप्यते वरसुखं वीराय भक्त्या नमः । वीरान्नास्त्यपरोऽत्र वीरपुरुषो वीरस्य वीरा गुणाः
वीरे ध्यानमहं भजेऽप्यनुदिनं मां वीर वीरं कुरु ॥१४॥
इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते भगवद्दीक्षाकल्याणवर्णनो
नाम द्वादशोऽधिकारः ॥१२।।
वीर प्रभु वीर जनोंमें अग्रणी हैं, गुणोंके निधान हैं, ऐसे वीरनाथको वीर पुरुष ही आश्रित होते हैं, वीरके द्वारा शीघ्र ही उत्तम सुख प्राप्त होता है, ऐसे वीर प्रभुके लिए भक्तिसे मेरा नमस्कार है। इस संसारमें वीरनाथसे भिन्न और कोई पुरुष नहीं है, उस वीरके गुण भी वीर ही हैं, ऐसे वीर जिनेन्द्र में मैं अपना प्रतिदिन ध्यान लगाता हूँ, हे वीर प्रभो, मुझे वीर करो ॥१४०||
इति श्री भट्टारक सकलकीतिविरचित श्री वीरवर्धमान चरितमें भगवान्की दीक्षा
कल्याणकका वर्णन करनेवाला बारहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ॥१२।।
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