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११२ श्री-वीरवर्धमानचरिते
[११.१३०धर्मों मित्रं पिता माता सहगामी हितंकरः । धर्मः कल्पद्रुमश्चिन्तारत्नं धर्मो निधानकम् ॥१३०॥ धन्यास्त एवं लोकेऽस्मिन् धर्म ये कुर्वतेऽनिशम् । प्रमादपरिहारेण पूज्या लोकत्रये सताम् ॥३१॥
ये धर्मेण विना मूढा गमयन्ति दिनान्यहो । वृषभास्ते बुधः प्रोक्ता निःशृङ्गा गृहभारतः ॥१३२॥ . ज्ञात्वेति धीधनैर्जातु विना धर्मात्प्रमादतः । नैका कालकला नेया क्षणध्वंसि यतो जगत् ॥१३३॥
(धर्मानुप्रेक्षा १२) इति विगतविकारास्तीववैराग्यमूलाः सकलगुणनिधानाः पापरागादिदूराः । जिनमुनिगणसेव्या धीधना रागहान्यै ह्यनवरतमनुप्रेक्षा हृदि स्थापयन्तु ॥१३४॥ एता द्वादश भावनाः सुविमला मुक्तिश्रियोऽत्राम्बिका
अन्तातीतगुणाकरा भवहराः सिद्धान्तसूत्रोद्भवाः । ये ध्यायन्ति यतीश्वराः प्रतिदिनं तेषां न काः संपदः
स्वमेक्त्यादिविभूतयश्च परमा आविर्भवन्ति स्वयम् ॥१३५॥ यो भुक्त्वा नरदेवजां बहुविधां लक्ष्मी सुपुण्योदयाद्
भूत्वा तीर्थकरो जगत्त्रयगुरुर्बाल्येऽपि कर्मापहम् । वैराग्यं परमं समाप शिवदं विश्वाङ्गभोगादिषु
स श्रीवीरजिनः स्तुतो मम नतो बाल्येऽस्तु दीक्षाप्तये ॥१३६॥ इति भट्टारक-श्रीसकलकीतिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते भगवदनुप्रेक्षा
चिन्तनवर्णनो नामैकादशोऽधिकारः ।।११।।
धर्मही मित्र. पिता. माता. साथ जानेवाला और हित करनेवाला है। धर्म ही कल्पना. चिन्तामणि और सब रत्नोंका निधान है ॥१३०॥ जो लोग इस लोकमें प्रमादका परिहार करके निरन्तर धर्मको करते हैं, वे धन्य हैं और वे ही तीनों लोकोंमें सज्जनोंके पूज्य हैं ॥१३१।। अहो, जो मूढजन धर्मके बिना दिन गंवाते हैं, ज्ञानीजनोंने उन्हें गृहके भारको ढोनेसे सींगरहित बैल कहा है ॥१३२॥ ऐसा जानकर बुद्धिमानोंको धर्मके बिना प्रमादसे कालकी एक कला भी व्यर्थ नहीं खोनी चाहिए, क्योंकि यह संसार क्षणभंगुर है ।।१३३।।।
(धर्मभावना १२) इस प्रकार विकार-रहित, तीव्र वैराग्य-कारक, सकल गुणोंकी निधान भूत, रागादि पापोंसे विहीन, तीर्थंकर और मुनिजनोंके द्वारा सेव्य ये बारह अनुप्रेक्षाएँ रागभावके विनाशके लिए ज्ञानीजन सदा अपने हृदयमें धारण करें ॥१३४॥ ये अति निर्मल बारह भावनाएँ मुक्तिलक्ष्मीकी माता हैं, अनन्त गुणोंकी भण्डार हैं, संसारकी नाशक है, सिद्धान्तसूत्रसे उत्पन्न हुई हैं। इनको जो यतीश्वर प्रतिदिन ध्याते हैं, उनको कौन-सी सम्पदाएँ नहीं प्राप्त होती हैं। उनको तो परम स्वर्ग और मुक्ति आदि विभूतियाँ स्वयं प्राप्त होती हैं ।।१३५।।
जो उत्तम पुण्यके उदयसे मनुष्यों और देवोंमें उत्पन्न हुई अनेक प्रकारकी लक्ष्मीको भोगकर और तीर्थकर होकर बालकालमें भी तीन जगत्के गुरु हो गये और कर्मोका नाश करनेवाले, एवं शिवपद देनेवाले ऐसे संसार शरीर और भोगादिमें परम वैराग्यको प्राप्त हुए, वे श्री वीर जिनेन्द्र मेरे स्तुत और नमस्करणीय हैं और बालकालमें वे दीक्षाकी प्राप्ति के लिए सहायक होवें ।।१३।।
इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति विरचित श्री वीरवर्धमान चरितमें भगवान्की अनुप्रेक्षा चिन्तनका वर्णन करनेवाला ग्यारहवाँ
अधिकार समाप्त हुआ ||११||
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