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७.११८]
सप्तमोऽधिकारः
७१
दृञ्चिद्वृत्तादिरत्नानामाकरो रनराशितः । भग्निना कर्मकाष्ठाणां भस्मीभावं करिष्यति ॥१०२॥ गजेन्द्राकारमादाय भवत्यास्यप्रवेशनात् । स्वद्गर्भ निर्मले तीर्थेऽम्तिमोऽवतरिष्यति ॥१०३॥ इत्यमीषां च सम्यक्सरफलाकर्णनतः सती। कृत्वा रोमाञ्चितं गानं पुत्रं प्राप्तेव सातुषत् ॥१०॥ तदैवादिसुरेशस्यादेशाच्छ्याद्याः सुदेवताः । पद्मादिहृदवासिन्यस्तत्राजग्मुश्च षट्प्रमाः ॥१०५॥ व्यधुस्तीर्थकरोत्पत्त्यै तास्तस्था गर्मशोधनम् । स्वर्गादुपाहृतैर्दिव्यैः शुचिद्रव्यैः शुभाप्तये ॥१०६॥ पुनर्देव्यो जिनाम्बायामादधुः स्वानिमान् गुणान् । सर्वा अभ्यर्णवर्तिन्यस्तत्सेवादिपरायणाः ॥१०॥ श्रीः श्रियं होः स्वलजां च प्रतिधैर्य महधे । तस्यां कीर्तिः स्तुति बुद्धिर्बोधि लक्ष्मीश्च वैभवम् ॥१०८॥ निसर्गनिर्मला देवी भूयस्ताभिर्विशोधिता । तदाच्छस्फटिकेनेव घटिताङ्गीतरां बमौ ॥१०९॥ तदैवाषाढमासस्य शुक्ले षष्ठी दिने शुचौ । उत्तराषाढनक्षत्रे शुभे लन्मादिके सति ॥११०॥ सोऽमरेन्द्रोऽच्युताच्च्युत्वा धर्मध्यानेन धर्मकृत् । सुगर्भ प्रियकारिण्याः शुचौ पुण्यादवातरत् ॥१११॥ तद्गर्भाधानमाहात्म्याद् घण्टाशब्दो महानभूत् । स्वलोकेषु सुरेशा विष्टराणि प्रचकम्पिरे ॥११२॥ स्वयमेवामवत्सिहनादो ज्योतिष्कधामसु । शङ्खध्वनिमहामासीद् भवनाधिपसासु ॥११३॥ मेरीरवोऽतिगम्भीरो व्यन्तराणां ग्रहेषु च । शेषाश्चर्याणि जातानि बहानि सर्वधामसु ॥११४॥ इत्यादि विविधाश्चर्यदर्शनाच्छीजिनेशिनः । विवेदरवतारं ते चतुर्णिकायवासवाः ॥११॥ ततस्ते त्रिदशाधीशाः स्वस्वभूत्युपलक्षिताः । स्वं स्वं वाहनमारूढाः सद्धर्मकरणोद्यताः ॥१६॥ स्वाङ्गाभरणतेजोभिर्योतयन्तो दिशो दश । ध्वजछत्रविमानाय श्छादयन्तो नभोऽङ्गणम् ॥११७॥ सामराः सकलत्रा जयवाद्यादिरवाकिताः । जिनकल्याणसंसिद्धय माजग्मुस्तत्पुरं परम् ॥११॥
अवधिज्ञानरूप नेत्रका धारक होगा॥१०रत्नराशिके देखनेसे वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणोंका भण्डार होगा। और अग्निके देखनेसे वह कर्मरूप काष्ठको भस्म करेगा ॥१०२।। मुखमें प्रवेश करते हुए गजेन्द्रके देखनेसे आपके निर्मल गर्भमें अन्तिम तीर्थकर गजेन्द्रके आकारको धारण करके अवतरित होगा ॥१०३॥ इस प्रकार इन स्वप्नोंका उत्तम फल सुननेसे वह सती रोमांचित शरीर होती हुई पुत्रको प्राप्त हुए के समान अत्यन्त सन्तुष्ट हुई ॥१०४॥
इसी समय सौधर्म सुरेन्द्र के आदेशसे पद्म आदि सरोवरोंमें रहनेवाली श्री आदि छहों देवियाँ वहाँ आयीं ॥१०५|| उन्होंने स्वर्गसे लाये हुए दिव्य पवित्र द्रव्योंसे पुण्य प्राप्तिके निमित्त तीर्थकरकी उत्पत्तिके लिए उस प्रियकारिणीके गर्भका शोधन किया ॥१०६|| पुनः समीपमें रहकर और उसकी सेवामें तत्पर होकर उन सभी देवियोंने जिन मातामें ये अपने-अपने गुण स्थापित किये ॥१०७।। माताके शरीरमें श्री देवीने अपनी शोभाको, ह्री देवीने अपनी लज्जाको, धृति देवीने महान् धैर्यको, कीर्तिदेवीने स्तुतिको, बुद्धिदेवीने बोधिको और लक्ष्मी देवीने अपने वैभवको धारण किया ।।१०८।। वह देवी स्वभावसे ही निर्मल थी; पुनः उन देवियोंके द्वारा विशुद्ध किये जानेपर स्वच्छ स्फटिकमणि निर्मित शरीरके समान अत्यन्त शोभाको प्राप्त हुई ॥१०९।। उसी समय आषाढ़मासके शुक्लपक्षके पवित्र षष्ठीके दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में शुभ लग्नादिक होनेपर वह धर्मात्मा देवेन्द्र धर्मध्यानके साथ अच्युत स्वर्गसे च्युत होकर पुण्योदयसे प्रियकारिणीके पवित्र गर्भ में अवतरित हुआ ॥११०-१११।। उसके गर्भधारणके माहात्म्यसे स्वर्गलोकमें घण्टाओंका भारी शब्द हुआ और इन्द्रोंके आसन कम्पित हुए ॥११२।। ज्योतिष्क देवोंके स्थानों में स्वयमेव ही सिंहनाद हुआ । भवनवासियोंके भवनोंमें शंखध्वनि होने लगी ॥११३।। व्यन्तरों के घरों में अति गम्भीर भेरियोंका शब्द हुआ। उस समय सर्व ही स्थानोंमें इसी प्रकार के अनेक आश्चर्य हुए ॥११४॥ इत्यादि नाना प्रकारके आश्चर्योंको देखनेसे चतुर्णिकायके देवोंने श्री तीर्थकर देवके गर्भावतारको जाना ॥११५।। तब वे सभी देवेन्द्र अपनी-अपनी विभूतिके साथ अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो उत्तम धर्मके करनेमें उद्यत हुए अपने
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