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श्री - वीरवर्धमानचरिते
[ ९.१३२
कल्पार्ह्रिपस्य शाखासु कल्पवल्य इवोद्गताः । बभुस्ताः परिनृत्यन्तः करौघेष्वम रेशिनः ॥ १३२ ॥ हस्ताङ्गुलीषु शक्रस्य निधाय स्वक्रमान् शुभान् । नेदुः काश्चित्सलीलं ताः सूचीनाट्यमिवाश्रिताः ॥ १३३॥ दिव्याः कराङ्गुलीरन्या भ्रेमुश्चादिसुरेशिनः । वंशयष्टीरिवारुह्य तदग्रार्पितनाभयः ॥ १३४॥ प्रतिबाहुमरेशस्य नटन्थ्यो नाकियोषितः । यत्नेन संचरन्ति स्म वञ्चयन्त्यो नृवीक्षणात् ॥ १३५ ॥ ऊर्ध्वमुच्छालयंस्ताः खे नटन्तीदर्शयन् पुनः । क्षणात् कुर्वन्नदृश्याश्च क्षणान्नयनगोचराः ॥ १३६ ॥ इतस्ततः स्वदोर्जाले गूढं संचारयन् महान् । तदा हरिरभूलोके माहेन्द्रजालिकोपमः ॥१३७॥ प्रत्यङ्गमस्य ये रम्याः कलाचा नृत्यतोऽभवन् । ता एव तासु देवीषु संविभक्ता इवारुचन् ॥ १३८ ॥ इत्याद्यैर्विविधैर्दिव्यैर्नर्तनैर्विक्रियोद्भवैः । आनन्दनाटकं प्रेक्ष्यं पूर्ण देवीभिरादरात् ॥ १३९॥ कृत्वामा बहुधाकारैर्हाबैर्भावैः सहोत्सवैः । परं सौख्यं सुरेशोऽर्हस्पित्रादीनामजीजनत् ॥ १४०॥ ततः शक्रा जिनेन्द्रस्य शुश्रूषामक्तिहेतवे । देवीर्घाश्रीर्नियोज्यामरकुमारांश्च मुक्तये ॥ १४१ ॥ तद्वयोरूपवेषादिकारिणः शुभचेष्टितैः । देवैः सार्धमुपार्ज्यातिपुण्यं स्वं स्वं दिवं ययुः ॥ १४२ ॥ इति सुकृतविपाकात्प्राप तीर्थेट् सुरेशैः सकलविभवपूर्णं जन्मकल्याणसारम् । शुभसुखगुणबीजं मो विदित्वेति दक्षाः भजत परमय बाद्धर्ममेकं सदैव ॥ १४२ ॥
उस समय इन्द्रके भुजासमूह पर नृत्य करती हुई वे देवियाँ ऐसी शोभित हो रही थीं मानो कल्प वृक्षकी शाखाओं पर फैली हुई कल्पलताएँ ही हों ॥ १३२ ॥ कितनी ही देवियाँ शक्र के हाथकी अंगुलियों पर अपने शुभ चरणोंको रखकर लीलापूर्वक सूचीनाट्य ( सूईकी नोकों पर किया जानेवाला नृत्य ) को करती हुई के समान नाचने लगीं || १३३ || कितनी ही देवियाँ इन्द्रकी दिव्य हस्तांगुलियोंके अग्र भागपर अपनी-अपनी नाभिको रखकर इस प्रकार परिभ्रमण कर रही थीं, मानो बाँसकी लकड़ीपर चढ़कर और उसके अग्र भागपर अपनी नाभिको रखकर घूम रही हों ||१३|| कितनी ही देवियाँ इन्द्रकी प्रत्येक भुजापर नृत्य करती हुई तथा मनुष्योंको नेत्रोंके कटाक्षसे उगती हुई संचार कर रही थीं || १३५ || वह इन्द्र नृत्य करती हुई उन देवियोंको कभी ऊपर आकाश में उछालकर नृत्य करता हुआ दिखाता था, कभी उन्हें क्षण-भर में अदृश्य कर देता था और कभी क्षणभर में दृष्टिगोचर कर देता था || १३६|| कभी उन्हें अपनी भुजाओं के जाल में गुप्त रूपसे इधर-उधर संचार कराता हुआ वह इन्द्र उस समय लोक में महान् इन्द्रजालिककी उपमाको धारण कर रहा था ॥ १३७॥ नृत्य करते हुए इन्द्रके प्रत्येक अंगमें जो रमणीक कला-कौशल होता था, वह उन सभी देवियोंमें विभक्त हुए के समान प्रतीत होता था || १३८ || इत्यादि विक्रियाजनित विविध दिव्य नृत्योंके द्वारा, बहुत प्रकार के आकारवाले हाव-भाव-विलासोंके द्वारा आदरसे देवियोंके साथ दर्शनीय आनन्द नाटक करके इन्द्रने माता-पिता और दर्शक आदिकोंको परम सुख उत्पन्न किया ।।१३९ - १४०॥ तदनन्तर मुक्ति प्राप्त्यर्थ जिनेन्द्रदेवकी शुश्रूषा और भक्ति के लिए अनेक देवियोंको धायरूपसे और भगवान के वयके अनुरूप वेष आदिके करनेवाले देवकुमारोंको इन्द्रने नियुक्त किया | पुनः शुभचेष्टावाले देवोंके साथ महान् पुण्यको उपार्जन करके वे सब देवगण अपनेअपने स्वर्गको चले गये ॥१४१-१४२॥
इस प्रकार पुण्यके परिपाकसे तीर्थंकर देवने इन्द्रोंके द्वारा समस्त वैभव से परिपूर्ण सारभूत जन्मकल्याणक महोत्सवको प्राप्त किया । अतः ऐसा जानकर चतुर पुरुष उत्तम और गुणों के कारणभूत एक धर्मको ही परम यत्नके साथ सदा सेवन करें ||१४३ ॥
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