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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१०.५७समेखलं कटीभागं लसदंशुकवेष्टितम् । स्मरारेः स दधेऽगम्यं ब्रह्मभूपगृहोपमम् ॥५७॥ बभारोरुद्वयं दीप्तं वीरो जङ्ग्रे च कोमले । कदल्या गर्मतः किंतु व्युत्सर्गादिविधौ क्षमे ॥५४॥ पादाब्जयोमहाकान्तिरस्य केनोपमीयते । किङ्करा इव देवेन्द्राः कुर्वन्त्याराधनं ययोः ।।५९।। इत्याद्या परमा शोभा स्याकेशायं नखाग्रतः । स्वभावेनाभवद्या तां विद्वान् को गदितुं क्षमः ॥६०॥ जगत्त्रयस्थितैर्दिव्यैर्दीप्रैः पूतैश्च पुद्गलैः । सुगन्धैर्निर्मित: कायो विभोः सद्विधिनासमः ॥६१॥ आधे संहननं तस्य वज्रास्थिघटितं ह्यभूत् । वज्रास्थिवेष्टितं वज्रनाराचैर्भिन्न मूर्जितम् ॥६२॥ मदखेदादयो जातु नास्य गात्रे पदं व्यधुः । महारागादिका दोषा आतङ्काश्च त्रिदोषजाः ॥६॥ जगत्प्रिया शुभा वाणी विश्वसन्मार्गदेशिनी । धर्ममातेव चास्यासीनापरोन्मार्गवर्तिनी ॥६॥ भर्तुर्दिव्याङ्गमाश्रित्य चामूनि लक्षणान्यपि । बभुर्यथात्र धर्माद्या गुणा आश्रित्य धर्मिणम् ॥६५॥ श्रीवृक्षः शङ्ख एवाजस्वस्तिकाङ्कुशतोरणम् । सच्चामरं सितच्छत्रं केतनं सिंहविष्टरम् ॥६६॥ मत्स्यौ कुम्भौ महाब्धिश्च कूर्मश्चक्रं सरोवरम् । विमानं भवनं नागो मर्त्यनायौं महान् हरिः ॥६७।। बाणबाणासने गङ्गा देवराजोऽचलाधिपः । गोपुरं पुरमिन्द्वकौं जात्यश्वस्तालवृन्तकम् ॥६८॥ मृदङ्गोऽहिरजौ वीणा वेणुः पट्टांशुकापणी । दीप्राणि कुण्डलादीनि विचित्रामरणानि च ॥६९।। उद्यानं फलितं क्षेत्रं सुपककलमान्वितम् । वज्र रत्नं महाद्वीपो धरा लक्ष्मी सुभारती ॥७॥ हिरण्यं कल्पवल्ली हि चूडारनं महानिधिः । सुरभिः सौरभेयोऽपि जम्बूवृक्षश्च पक्षिराट ॥७॥ सिद्धार्थपादपः सौधमुनि तारका ग्रहाः । प्रातिहार्याण्यहार्याणि चान्यानि मङ्गलान्यपि ॥७२॥
के लिए वापिका ही हो ।।१६।। वे सुन्दर मेखला (कांचीदाम) युक्त, शोभायमान रूपसे वेष्टित कटिभागको धारण करते थे, जो ऐसा प्रतीत होता था मानो कामदेवके अगम्य ऐसे ब्रह्मनृपतिका घर ही हो ।।५७॥ वे वीरप्रभु कान्तियुक्त और केलेके गर्भभागसे भी कोमल, किन्तु कायोत्सर्ग आदिके करने में समर्थ दो ऊरु और जंघाओंको धारण करते थे ॥५८|| उनके चरण-कमलों की महाकान्तिको किसकी उपमा दी सकती है, जिनकी कि आराधना देवेन्द्र भी किंकरके समान करते हैं ॥५९॥ इस प्रकार नखके अग्रभागसे लेकर केके अग्रभाग तककी उनके शरीरकी परम शोभाको जो स्वभावसे ही प्राप्त हुई थी, कहनेके लिए कौन विद्वान् समर्थ है ॥६०॥ तीन लोकमें स्थित, दिव्य, कान्तियुक्त, पवित्र, सुगन्धित पुद्गल-परमाणुओंसे ही विधाताने प्रभुका अनुपम शरीर रचा था ।।६१।। उनका प्रथम वनवृषभ-नाराच-संहनन था, जो कि वज्रमय हडियोंसे घटित, वज्रमय वेष्टनोंसे वेष्टित और वज्रमय कीलोंसे कीलित था ॥६२।। उनके शरीरमें मद, खेद आदि विकार, रागादि दोष, और त्रिदोष-जनित रोगादिने कभी स्थान नहीं पाया था ।।६३।। उनकी शुभ वाणी जगत्-प्रिय, विश्वको सन्मार्गका उपदेश देनेवाली और धर्ममाताके समान कल्याणकारिणी थी, कुदेवोंके समान उन्मार्ग-प्रवर्तानेवाली नहीं थी ॥६४।।
वीरप्रभुके दिव्य शरीरको पाकर ये आगे कहे जानेवाले लक्षण (चिह्न) ऐसे शोभायमान होते थे, जैसे कि धर्मात्माको पाकर धर्मादिक गुण शोभित होते हैं ॥६५|| वे लक्षण ये हैंश्रीवृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चामर, श्वेत छत्र, ध्वजा, सिंहासन, मत्स्ययुगल, कलश युगल, समुद्र, कच्छप, चक्र, सरोवर, देव-विमान, नाग-भवन, स्त्री-पुरुष-युगल, महासिंह, धनुष, बाण, गंगा, इन्द्र, सुमेरु, गोपुर, नगर, चन्द्र, सूर्य, उत्तम जातिका अश्व, तालवृन्त, मृदंग, सर्प, माला, वीणा, बाँसुरी, रेशमी वस्त्र, दुकान, दीप्तियुक्त कुण्डल, विचित्र आभूषण, फलित उद्यान, सुपक धान्ययुक्त क्षेत्र, वन, रत्न, महाद्वीप, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, सुवर्ण, कल्पलता, चूडामणिरत्न, महानिधि, कामधेनु, उत्तम वृषभ, जम्बू वृक्ष, पक्षिराज (गरुड़), सिद्धार्थ (सर्षप) वृक्ष, प्रासाद, नक्षत्र, तारिका, ग्रह, प्रातिहार्य इत्यादि दिव्य
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