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एकादशोऽधिकारः
वन्दे वीरं महावीरं कर्मारातिनिपातने । सन्मतिं स्वात्मकार्यादौ वर्धमानं जगत्नये ॥१॥ अथ स्वामी महावीरः स्ववैराग्यप्रवृद्धये । अचिन्तयदनप्रेक्षा द्वादशेति जगद्विताः ॥२॥ अनित्याशरणे संसारकत्वान्यत्वसंज्ञकाः । ततोऽशुच्यात्रवौ संवराभिधो निर्जरा तथा ॥३॥ लोकस्त्रिधात्मको बोधिदुर्लभो धर्म एव हि । द्विषड्भेदा इमा प्रोक्ता अनुप्रेक्षा विरागदाः ॥४॥ आयुर्नित्यं यमाकान्तं जरास्यस्थं च यौवनम् । रोगोरगबिलं कायं खसुखं क्षणभङ्गुरम् ॥५॥ यत्किंचिद् दृश्यते वस्तु सुन्दरं भुवनत्रये । कर्मोद्भवं हि तत्सर्वं नश्येकालेन नान्यथा ॥६॥ यदायुर्दुलभं पुंसां भवकोटिशतैरपि । क्षणविध्वंसि मृत्योस्तत्का दुराशान्यवस्तुषु ॥७॥ यतो गर्भात्समारभ्य देहिनं समयादिभिः । नयति स्वान्तिकं पापी यमो विश्वक्षयंकरः ॥८॥ यद्यौवनं सतां मान्यं धर्मशर्मादिसाधनम् । तदपि व्याधिमृत्यादेः क्षणाद् यात्यभ्रवत्क्षयम् ॥९॥ यौवनस्था यतः केचिद् रागाग्निकवलीकृताः । भुञ्जन्ति विविधं दुःखं चान्ये वन्दिगृहे पृताः ॥१०॥ यस्यार्थ क्रियते कर्म निन्धं श्वभ्रादिसाधकम् । निःसारं तदपि प्रोक्तं कदम्ब चञ्चल यमात् ॥११॥ राज्यलक्ष्मीसुखादीनि चक्रिणामपि भूतले । अभ्रच्छायोपमान्यन्न स्थिरता कान्यवस्तुषु ॥१२॥
कर्मरूप शत्रुओंके नाश करने में महावीर, अपने आत्मीय कार्य आदिके साधनमें सन्मति और जगत्त्रयमें वर्धमान ऐसे श्री वीरप्रभुको वन्दन करता हूँ ॥१॥
अथानन्तर महावीर स्वामी अपने वैराग्यकी वृद्धिके लिए जगत-हितकारी अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, त्रिप्रकारात्मक लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मनामवाली, वैराग्य-प्रदायिनी बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करने लगे ॥२-४||
__ संसारकी अनित्यताका विचार करते हुए वे सोचने लगे-प्राणियोंकी आयु नित्य ही–प्रतिसमय यमसे आक्रान्त हो रही है, यौवन वृद्धावस्थाके मुख में प्रवेश कर रहा है, यह शरीर रोगरूपी साँपोंका बिल है और ये इन्द्रिय-सुख क्षणभंगुर हैं ।।५।। इस तीन भुवनमें जो कुछ भी वस्तु सुन्दर दिखती है, वह सब कर्म-जनित है और समय आनेपर नष्ट हो जायेगी, यह अन्यथा नहीं हो सकता ॥६।। जब शतकोटि भवोंसे भी अति दुर्लभ मनुष्योंकी आयु मृत्युसे क्षणभरमें नष्ट हो जाती है, तब अन्य वस्तुओंमें स्थिरताकी इच्छा करना दुरासामात्र है ।।७। क्योंकि गर्भकालसे लेकर यह विश्वका क्षय करनेवाला पापी यमराज प्राणीको प्रति समय अपने समीप ले जा रहा है ॥८॥ जो यौवन सज्जनोंके धर्म और सुखका साधन माना जाता है, वह भी व्याधि और मृत्यु आदिसे मेघके समान क्षणभरमें क्षयको प्राप्त हो जाता है ।।९|| यौवन अवस्थामें रहते हुए ही कितने मनुष्य रागरूपी अग्निके ग्रास बन जाते हैं और कितने ही बन्दीगृहमें बद्ध होकरके नाना प्रकारके दुःख भोगते हैं ॥१०॥ जिस कुटुम्बके लिए यह प्राणी नरक आदि दुर्गतियोंके साधक निन्द्य कर्म करता है, वह कुटुम्ब भी यमसे ग्रस्त है, चंचल है, अतः निःसार कहा गया है ।।११।। इस भूतलपर जब चक्रवर्तियोंके भी राज्यलक्ष्मी और सुखादिक मेघ-छायाके समान अस्थिर हैं तब अन्य वस्तुओंमें स्थिरता कहाँ
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