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११.१०२ ]
एकादशोऽधिकारः षड द्रव्या यत्र लोक्यन्ते स लोकस्त्रिविधो मतः । अधोमध्योलभेदेनाकृत्रिमः शाश्वतो महान् ॥८८॥ सप्तरज्जुप्रभेऽस्याधोभागे रत्नप्रभादिकाः । स्युः श्वभ्रमयाः सप्तविश्वदुःखाशुभाकराः ॥८९।। तास स्युः पटलान्येकोनपञ्चाशच संग्रहे । चतुर्भिरधिकाशीतिलक्षाणि दुर्बिलान्यपि ॥१०॥ तेषु ये प्राग्भवे दुष्टा महापापविधायिनः । क्रूरकर्मरता निन्द्याः सप्तव्यसनसेविनः ॥११॥ महामिथ्यामतासक्ता आपन्ना नारकी गतिम् । वाचाभगोचरं दुःखं ते लभन्ते परस्परम् ॥१२॥ छेदनैर्विविधाकारैस्ताडनैश्च कदर्थनैः । शूलादिरोहणैस्तीः क्षुत्तुष्णादिपरीष हैः ॥१३॥ जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणोदादयोऽब्धयः । असंख्या मेरवः पञ्चतुङ्गास्त्रिशत्कुलान्द्रयः ॥१४॥ विंशतिर्गजदन्ता विजयार्धाः शतसप्ततिः । वक्षाराख्या अशीतिश्चतुरिष्वाकारपर्वताः ॥१५॥ दश कुरुद्रुमा मानुषोत्तरेण सहोर्जिताः । सार्धद्वीपद्वये सन्ति जिनधामादिभूषिताः ॥९६॥ विषयाश्च नगर्यः सप्तव्याधिकशतप्रमाः । चतुर्गतिषु मुक्त्यम्बास्त्रिपञ्चकर्मभूमयः ॥१७॥ जनन्यो विश्वभोगानां त्रिंशद्भोगधराः पराः । महानद्यो विभङ्गाश्च ह्रदाः कुण्डादयो वराः ॥१८॥ विज्ञेया आगमे दक्षः षड्देवी कमलादयः । अत्र नन्दीश्वरे द्वीपेऽअनाद्यद्रयग्रवर्तिनः ॥१९॥ द्विपञ्चाशत्समुस्कृष्टाः सर्वदेवनमस्कृताः । सन्ति ये श्रीजिनागारास्तान् सदा प्रणमाम्यहम् ॥१०॥ चन्द्राः सूर्या ग्रहास्ताराः सनक्षत्रा असंख्यकाः । आयुःकायधिशर्माद्यज्योतिष्काः पञ्चधेत्यहो ॥१०॥ मध्येऽमीषां विमानानां सर्वेषां स्युजिनालयाः । हेमरत्नमयाः सार्चा एतान्नौमि सहार्चया ॥१०॥
जहाँपर जीवादि छहों द्रव्य अवलोकन किये जाते हैं, वह लोक कहा जाता है। यह लोक अकृत्रिम, शाश्वत और महान है। तथा अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकके भेदसे तीन प्रकारका है ।।८८। इस लोकके सात राजु प्रमाण अधोभागमें समस्त अशुभ दुःखोंकी खानिरूप नरकमय रत्नप्रभादिक सात भूमियाँ हैं ।।८।। उनमें उनचास (४९) पटल हैं और उनमें चौरासी लाख खोटे बिल हैं ॥२०॥ जो दुष्ट जीव पूर्वभवमें महापाप करते हैं, क्रूर कर्मों में संलग्न रहते हैं, निन्दनीय हैं, सप्त व्यसनसेवी हैं और महामिथ्यात्वी कुमतोंमें आसक्त हैं, ऐसे जीव उन नरक बिलोंमें उत्पन्न होकर नारक पर्यायको प्राप्त होते हैं और वचनोंके अगोचर महादुःखोंको सहते हैं । वे परस्पर छेदन-भेदन, विविध प्रकारके ताडन, कदर्थन, शूलारोहण आदिके द्वारा तथा तीव्र भूख-प्यास आदि परीषहोंके द्वारा रात-दिन दुःखोंको पाते हैं ।।९१-२३।। मध्यलोकमें जम्बूद्वीपको आदि लेकर असंख्य द्वीप और लवण-समुद्रको आदि लेकर असंख्य समुद्र हैं, पाँच उन्नत मेरुपर्वत हैं, तीस कुलाचल हैं, बीस गजदन्त पर्वत हैं, एक सौ सत्तर विजया गिरि हैं, अस्सी वक्षार पर्वत हैं। चार इक्ष्वाकार पर्वत हैं, दश कुरुद्रम हैं, एक मानुषोत्तर पर्वत है। पाँच मेरु आदि ये सब अढ़ाई द्वीप में हैं। ये सभी पर्वत उन्नत जिनालयों और कूटादिकोंसे विभूषित हैं ।।९४-९६।। मनुष्यलोकमें एक सौ सत्तर बड़े देश और एक सौ सत्तर महानगरियाँ हैं। चारों गतियोंमें ले जानेवाली और मुक्तिकी मातारूप पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं ।।९७।। समस्त भोगोंकी जननी तीस भोगभूमियाँ हैं । इसके अतिरिक्त गंगा-सिन्धु आदि महानदियाँ, विभंग नदियाँ, पद्म आदि हद और गंगाप्रपात आदि श्रेष्ठ कुण्ड आदि भी हैं ।।२८।। हृदोंके सरोवरोंमें अवस्थित कमल और उनपर रहनेवाली श्री-ह्री आदि देवियाँ भी इसी मनुष्यलोकमें रहती हैं, सो यह सब वर्णन आगममें दक्ष चतुर पुरुषोंको जानना चाहिए। इसी मध्यलोकमें आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप है, जहाँपर अंजनगिरि आदि पर्वतोंपर अति उत्कृष्ट बावन श्री जिनालय हैं, जो सर्वदेवोंके द्वारा नमस्कृत है। मैं भी उनको सदा नमस्कार करता हूँ ॥९९-१००॥ इस मध्यलोकके ऊपर चन्द्र-सूर्य-ग्रहतारा और नक्षत्र ये पाँच प्रकारके असंख्यात ज्योतिष्क देव रहते हैं, वे सभी असंख्यात वर्षेकी आयुके धारक ऋद्धि और सुखादिसे सम्पन्न हैं ॥१०१।। इन सभी ज्योतिष्क देवोंके
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