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११.७५ ] एकादशोऽधिकारः
१०७ अपवित्रेण देहेन कृत्स्नकर्ममलातिगः । पवित्रो विबुधैः कार्यः स्वात्मा दृञ्चित्तपोजलैः ॥३३॥
(अशुच्यनुप्रेक्षा ६) रागायै रागिणो यत्र प्रयाति पुद्गलबजः । कर्मरूपेण स ज्ञेय आस्रवोऽनन्तदुःखदः ॥६॥ सच्छिद्रं च यथा पोतं मन्जत्यब्धौ जलागमैः । तथा कर्मास्रवैः प्राणी ह्यनन्ते भवसागरे ॥६५॥ दुर्मतोत्थं कुमिथ्यात्वं पञ्चधानर्थमन्दिरम् । अविरत्यौ द्विषड्भेदाः प्रमादास्त्रिकपञ्चधा ॥६६॥ महापापाकरीभताः कषायाः पञ्चविंशतिः । योगाः पञ्चदशैतेऽत्र प्रत्यया दुर्धराः खलाः ॥६७॥ सम्यावृत्तसुयलाद्यायुधैस्तीक्ष्णैर्मुमुक्षुभिः । इवारयः प्रहन्तव्याः कर्मास्रवनिबन्धनाः ॥६॥ कर्मागममहद्वारं निरोद्धं ये क्षमा न हि । कुर्वन्तोऽपि तपो धोरं जातु तेषां न निवृतिः ॥६९।। यैः स्वकर्मानवो रूद्धो ध्यानाध्ययनसंयमैः । तेषां समीहितं सिद्धं किं साध्य कायदण्डनैः ॥७॥ यावत्कर्मास्रवी योगाजायते चञ्चलात्मनाम् । तावन्मोक्षो न तत्सङ्गाद्वर्धते भवपद्धतिः ॥७१॥ मस्वेत्यादौ सुयत्नेन रुद्ध्वा सर्वाशुभास्रवम् । रखत्रयशुभध्यानैस्ततः प्राप्य चिदात्मनः ॥७२॥ निर्विकल्पं महध्यानं कृत्स्नकर्मारिघातकम् । शुभास्त्रवान् स्वमोक्षाय निराकुर्वन्ति योगिनः ॥७३॥
(आस्रवानुप्रेक्षा ७) योगः कर्मास्रव द्वारनिरोधः क्रियतेऽत्र यः। मुनिभिर्वृत्त गुप्त्यायैः संवरः स शिवप्रदः ॥७॥
त्रयोदशविधं वृत्तं सद्धर्मो दशभेदभाक् । अनुप्रेक्षा द्विषड्भेदः परीषहमहाजयः ॥७॥ अतः ज्ञानियोंको इस अपवित्र देहसे भिन्न, सर्व कर्म-मलसे रहित, अपना आत्मा दर्शन-ज्ञानतपरूप जलके द्वारा पवित्र करना चाहिए ॥६३॥
(अशुच्यनुप्रेक्षा-६) जिस रागवाले आत्मामें रागादिभावोंके द्वारा पुद्गलपिण्ड कर्मरूप होकरके आता है, वह अनन्त दुःखोंका देनेवाला आस्रव जानना चाहिए ॥६४।। जिस प्रकार छिद्रयुक्त जहाज समुद्रमें डूब जाता है, उसी प्रकार कर्मों के आस्रवसे यह प्राणी भी इस अनन्त संसार-सागरमें डूबता है ।।६५।। कर्मों के इस आस्रवके कारण अनर्थोंका स्थान, दुर्मतोंसे उत्पन्न हुआ पाँच प्रकारका मिथ्यात्व है, छह प्रकारकी इन्द्रिय-अविरति और छह प्रकारकी प्राणिअविरति, पन्द्रह प्रकारका प्रमाद, महापापोंकी खानिरूप पचीस कषाय, और पन्द्रह योग हैं । ये सभी कर्मास्रवके कारण हैं, जो दुःखसे दूर किये जाते हैं और दुर्जन हैं ॥६६-६७।। भोक्षाभिलाषी जनोंको चाहिए कि वे इन कर्मास्रवके कारणोंका शत्रओंके समान सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि तीक्ष्ण शस्त्रोंके द्वारा प्रयत्नके साथ विनाश करें ।।६८|| जो पुरुष घोर तपको करते हुए भी कर्मों के आनेके इन महाद्वारोंको रोकने में असमर्थ हैं, उनकी कभी निर्वृति (मुक्ति) नहीं हो सकती है ॥६९।। जिन पुरुषोंने ध्यान, अध्ययन और संयमके द्वारा अपने कर्मास्रवको रोक दिया है, उनका मनोरथ सिद्ध हो चुका है। फिर उन्हें शरीरको क्लेश पहुँचानेसे क्या साध्य है ? ||७०।। जबतक चंचल आत्माओंके योगसे कर्मास्रव हो रहा है, तबतक उनको मोक्ष नहीं मिल सकता। किन्तु आस्रवके संगसे उनकी संसार-परम्परा ही बढ़ती है ॥७१॥ ऐसा समझकर योगीजन सबसे पहले सुप्रयत्नसे सर्व अशुभ आस्रवोंको रोक करके रत्नत्रय और शुभध्यानके द्वारा चेतन आत्मस्वरूपको प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात् सर्व कर्मशत्रुओंके घातक निर्विकल्प परमध्यानको धारण करके आत्माके मोक्षके लिए शुभ आस्रवको भी त्याग देते हैं ।।७२-७३।।
(आस्रवानुप्रेक्षा ७) मुनिजन योग, चारित्र, गुप्ति आदिके द्वारा जो कर्मास्रवके द्वारका निरोध करते हैं, वह मोक्षका देनेवाला संवर है ॥७४॥ कर्मास्रवको रोकनेके कारण इस प्रकार हैं-पाँच
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