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११.२५ ] एकादशोऽधिकारः
१०३ विज्ञायेति क्षणध्वंसि जगद्वस्त्वखिलं बुधाः । साधयन्ति दुतं मोक्षं नित्यं नित्यगुणाकरम् ॥१३॥
(अनित्यानुप्रेक्षा १) यथान निर्जनेऽरण्ये सिंहदंष्टान्तराच्छिशोः। न कोऽपि शरणं जातु रुग्मृत्यादेस्तथाङ्गिनाम् ॥१४॥ यतः सेन्द्रैः सुरैः सर्वेश्वक्रिविद्याधरादिभिः । यमेन नीयमानोऽङ्गी क्षणं मातुं न शक्यते ॥१५॥ मणिमन्त्रादयो विश्वे कृत्स्नाश्वौषधराशयः। व्यर्थीभवन्त्यही नणामागते सम्मखेऽन्तके ॥१६॥ शरण्याः सद्बुधैः प्रोक्ता जिनाः सिद्धाश्च साधवः । सहगामी सतां त्राता धर्मः केवलिभाषितः ॥१७॥ तपोदानजिनेन्द्रार्चाजपरत्नत्रयादयः । विश्वानिष्टाघहन्तारः शरण्याः धीमतां भुवि ॥१८॥ शरणं यान्ति येऽमीषां भवत्रस्ताशया बुधाः । तेऽचिरात्तद्गुणानाप्य पराः स्युस्तत्समाः स्फुटम् ॥१९॥ चण्डिकाक्षेत्रपालादीन् ये यान्ति शरणं शठाः । ते ग्रस्ता रोगदुःखौघैः पतन्ति नरकार्णवे ॥२०॥ मत्वेति धीधनैः कार्या शरण्याः परमेष्ठिनः । तपोधर्मादयः स्वस्य विश्वदुःखान्तकारिणः ॥२१॥ तथानन्तगुणैः पूर्णो मोक्षोऽनन्तसुखाकरः । विद्भिः स्वस्य शरण्योऽनुष्टेयो रत्नत्रयादिमिः ॥२२॥
(अशरणानुप्रेक्षा २) संसारो ह्यादिमध्यान्तदूरश्चाभव्यदेहिनाम् । अनन्तोऽशर्मसंपूर्णः सान्तो भव्यात्मनां क्वचित् ॥२३॥ सुखदःखोभयं भाति संसारेऽत्र जडात्मनाम् । अन्वहं केवलं दुःखं ज्ञानिनां च मतेर्बलात् ॥२४॥
यतो यदेव मन्यन्ते विषयोत्थं सुखं जडाः । तदेव चाधिकं दुःखं विदः श्वाभ्राद्यधार्जनात् ॥२५॥ सम्भव है ॥१२।। इस प्रकार इस समस्त जगत्को क्षण-विध्वंसी जानकर ज्ञानी पुरुष शीघ्र ही नित्य गणोंके भण्डाररूप स्थायी मोक्षका साधन करते हैं ॥१३॥
(यह अनित्यानुप्रेक्षा है-१) जिस प्रकार निर्जन वनमें सिंहकी दाढ़ोंके बीच में स्थित मृग-शिशुका कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार प्राणियोंको रोग और मरणसे बचानेके लिए कोई शरण नहीं है ॥१४॥ यमराजके द्वारा ले जाये जानेवाले प्राणीकी एक क्षण भी रक्षा करनेके लिए सर्व देव, इन्द्र, चक्रवर्ती और विद्याधरादि भी समर्थ नहीं हैं ॥१५॥ अहो, मनुष्योंको ले जाने के लिए यमराजके सम्मुख आ जानेपर मणि-मन्त्रादिक और संसारकी समस्त औषधिराशियाँ व्यर्थ हो जाती हैं ।।१६।। ज्ञानीजनोंने अरहन्त जिन, सिद्ध परमात्मा, साधुजन और केवलि-भाषित धर्म सज्जनोंके रक्षक और सहगामी कहे हैं ॥१७॥ संसारमें बुद्धिमानोंके लिए तप, दान, जिनेन्द्रपूजन, जप, रत्नत्रय आदि ही शरण देनेवाले और सर्व अनिष्ट और पापोंका नाश करनेवाले हैं ॥१८॥ संसारके दुःखोंसे त्रस्त चित्त-जो पण्डितजन उक्त अरहन्त आदिके शरणको प्राप्त होते हैं, वे शीघ्र ही उनके गुणोंको प्राप्त होकर नियमसे उनके समान हो जाते हैं ॥१९॥ मूर्ख चण्डिका और क्षेत्रपाल आदिके शरण जाते हैं, वे रोग-दुःख आदिके समूहसे पीड़ित होकर नरकरूप समुद्र में गिरते हैं ॥२०॥ ऐसा जानकर ज्ञानीजनोंको अपने समस्त दुःखोंके अन्त करनेवाले पंचपरमेष्ठी और तप-धर्मादिका शरण ग्रहण करना चाहिए ॥२१॥ तथा अनन्त गुणोंसे परिपूर्ण और अनन्त सुखोंका ससुद्र ऐसा मोक्ष रत्नत्रय आदिके द्वारा सिद्ध करना चाहिए, वही आत्माको शरण देनेवाला है ॥२२॥
(अशरणानुप्रेक्षा-२) यह संसार अभव्य जीवोंके लिए आदि, मध्य और अन्तसे दूर है, अर्थात् अनादिअनन्त है और अनन्त दुःखोंसे भरा हुआ है। किन्तु भव्यजीवोंकी अपेक्षा वह शान्त है ॥२३॥ मूर्खजनोंके लिए इस संसारमें सुख और दुःख दोनों प्रतिभासित होते हैं। किन्तु ज्ञानियोंको तो बुद्धिके बलसे केवल दुःखरूप ही प्रतीत होता है ॥२४|| जड़ बुद्धिवाले लोग जिस विषयजनित सुखाभासको सुख मानते हैं, ज्ञानीजन उसे नरकादि दुर्गतियोंके कारणभूत पापोंका
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