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१०.२६]
दशमोऽधिकारः सम्यक्त्वं क्षायिकं चास्य प्राक्तनं मलदूरगम् । अस्ति तेनाखिलार्थानां स्वयं सुनिश्चयोऽभवत् ॥१२॥ मतिश्रुतावधिज्ञानत्रितयं सहजं तदा । विभोरुत्कर्षतां प्रायादिव्येन वपुषा समम् ॥१३॥ तेन विश्वपरिज्ञानकलाविद्यादयोऽखिलाः । गुणा धर्मविचाराद्याश्चागुः परिणतिं स्वयम् ॥१४॥ ततोऽयं नृसुरादीनां बभूव गुरुरूर्जितः । नापरो जातु देवस्य गुरुर्वाध्यापकोऽस्त्यहीं ॥१४॥ अष्टमे वत्सरे देवो गृहिधर्माप्तये स्वयम् । आददौ स्वस्य भोग्यानि व्रतानि द्वादशैव हि ॥१६॥ स्वेददूरं वपुः कान्तं मलनीहारवर्जितम् । क्षीराच्छशोणिसं रम्यमादिसंस्थानभूषितम् ॥१७॥ स वज्रर्षभनाराचज्येष्ठसंहननान्वितम् । सौरूप्योत्कृष्टसंयुक्त महासौरभ्यमण्डितम् ॥१८॥ अष्टोत्तरसहस्रप्रमैर्लक्षणेरलंकृतम् । अप्रमाणमहावीर्याङ्कितं दधद्वयोऽमलम् ॥१९॥ प्रियं विश्वहितं चाभूद्विभोः कर्णसुखावहम् । इत्थं चातिशयैर्दिन्यैः सहजैर्दशभिर्युतम् ॥२०॥ अप्रमाणैर्गुणैश्चान्यैः सौम्यायैः कीर्तिकान्तिभिः । कलाविज्ञानचातुर्यैर्ऋतशीलादिभूषणैः ॥२१।। कनस्काञ्चनवर्णाभदिव्यदेहधरः प्रभुः । द्वासप्तस्यब्दजीवी स धर्ममूर्ति रिवाबभौ ॥२२॥ अथान्येयुः सुराः प्राहुः कथामस्य परस्परम् । सभायां कल्पनाथस्य महावोर्योद्भवामिति ॥२३॥ अहो वीरजिनस्वामी कौमारपदभषितः । धीरः शूराग्रणी वीरो ह्यप्रमाणपराक्रमः ॥२४॥ दिव्यरूपधरोऽनेकासाधारणगुणाकरः । वर्तते कीडयासक्तोऽधुनासन्नभवो महान् ॥२५॥ सङ्गमाख्योऽमरः श्रुत्वा तदुक्तं तं परीक्षितुम् । तस्मादेत्य महोद्याने द्रुमक्रीडापरायणम् ॥२६॥
वीरप्रभुके निर्मल क्षायिक सम्यक्त्व पूर्वभवसे ही प्राप्त था, उससे उनके सर्वतत्त्वोंका यथार्थ निश्चय स्वयं हो गया ॥१२॥ भगवान्के मति श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान जन्मसे ही प्राप्त थे, फिर ज्यों-ज्यों उनका दिव्य शरीर बढ़ने लगा, त्यों-त्यों वे तीनों ज्ञान और भी अधिक उत्कर्षताको प्राप्त हुए ।।१३।। उक्त ज्ञानोंके प्रकर्षसे समस्त पदार्थों का परिज्ञान, समस्त कलाएँ, सर्वविद्याएँ, सर्वगुण और धार्मिक विचार आदि स्वयं ही भगवानकी परिणतिको प्राप्त हुए ॥१४|| इस कारण वे बाल प्रभु मनुष्यों और देवोंके उत्तम गुरु सहजमें ही बन गये। इसीलिए वीरदेवका कोई दूसरा गुरु या अध्यापक नहीं हुआ, यह आश्चर्यकी बात है ।।१५।। आठवें वर्ष में वीर जिनने गृहस्थ धर्मकी प्राप्ति के लिए स्वयं अपने योग्य श्रावकके बारह व्रतोंको धारण कर लिया ॥१६॥
भगवान्का शरीर अतिशय सुन्दर, पसीना-रहित, मल-मूत्रादिसे रहित, दूधके समान उज्ज्वल रक्तवाला और सुगन्धित था । वे आदि समचतुरस्रसंस्थानसे भूषित थे, वज्रवृषभनाराचसंहननके धारक थे, उत्कृष्ट सौन्दर्यसे युक्त, महासुखसे मण्डित, एक हजार आठ शुभ लक्षण-व्यंजनोंसे अलंकृत और अप्रमाणमहावीर्यसे युक्त थे। प्रभु विश्वहितकारक और क)को सुखदायक प्रिय निर्मल वचनोंके धारक थे। इस प्रकार इन सहज उत्पन्न हुए दश दिव्य अतिशयों से युक्त थे, तथा सौम्यादि अप्रमाण अन्य गुणोंसे, कीर्ति-कान्तिसे, कलाविज्ञान-चातुर्यसे और व्रत-शीलादि भूषणोंसे भूषित थे ॥१७-२१॥ प्रभु तपाये हुए सोनेके वर्ण जैसी आभावाले दिव्य देहके और बहत्तर वर्षकी आयुके धारक थे। इस प्रकार वे साक्षात् धर्ममूर्तिके समान शोभते थे ।।२२।।
अथानन्तर एक दिन सौधर्म इन्द्रकी सभामें देवगण भगवान्के महावीर्यशाली होनेकी कथा परस्पर कर रहे थे कि देखो-वीरजिनेश्वर जो अभी कुमारपदसे भूषित हैं और क्रीड़ामें आसक्त हैं, फिर भी वे बड़े धीर-वीर, शूरोंमें अग्रणी, अप्रमाण पराक्रमी, दिव्यरूपधारी, अनेक असाधारण गुणोंके भण्डार, और आसन्न भव्य हैं ॥२३-२५।। देवोंकी यह चर्चा सुनकर संगम नामका देव उनकी परीक्षा करनेके लिए स्वर्गसे उस महावनमें आया, जहाँ पर कि वीरजिन
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