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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[ ८.९३अद्य प्रवर्तते देव ह्यानन्दः परमः सताम् । त्रिलोके धर्महेतुर्नोऽभवत्तीर्थकरोदयात् ॥१३॥ अतो देव वयं कुर्मः शिरसा ते नमस्क्रियाम् । सेवां भक्ति मुदाज्ञां च दध्मो नान्यस्य जातुचित् ॥१४॥ स्तुत्वेति तं जगन्नाथं स्वाङ्कमारोप्य देवराट । हस्तमुच्चालयामास मेरु गन्तं गजाश्रितः ॥१५॥ जय नन्देश वर्धस्व त्वमित्योच्चैवं निवजैः । सुराः कलकलं चक्रुस्तदा व्याप्तं दिगन्तरम् ॥१६॥ अथोत्पेतुर्नभोमागं प्रोच्चरज्जयघोषणाः । नाकिनोऽभासुरेन्द्रेण प्रमोदाङ्कितविग्रहाः ॥९७॥ तदाकाशे नटन्ति स्म लीलयाप्सरसः पुरः । विभोर्चजन्त्य एवात्र हर्षास्तूर्यत्रिकैः समम् ॥९॥ जन्माभिषेकसंबन्धिचारुगीताल्यनेकशः । दिव्यकण्ठा हि गन्धर्वा गायन्ति सह वीणया ।।१९।। कुर्वन्ति विविधान् नादान् देवदुन्दुभयोऽभुतान् । मधुरान् सुरदोःस्पर्शाद बधिरीकृतदिङमुखान् ॥१०० किन्नर्यः किन्नरैः साधं गीतं गानं मनोहरम् । पूर्ण जिनगुणः सारैः कर्तुमारेभिरे मुदा ।।१०।। वपुर्भगवतो दिब्नं पश्यन्तः स्वाङ्गनान्विताः । तदानिमेषनेत्राणां फलं प्रापुः सुरासुराः ॥ १०२॥ सौधर्माधिपतेरङ्कमध्यासीनस्य सद्गुरोः । शिरसीन्दुसमं छत्रमैशानेन्द्रः स्वयं दधे ॥१०॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रौ चामरोक्षेपणमुंदा । क्षीराब्धिवीचिसादृश्यैर्भजतो धर्मनायकम् ॥१०४।। तदातनी परां भूतिं वीक्ष्य के चेज्जिनेशिनः । शक्रप्रामाण्यमाश्रित्य स्वीचकुर्दर्शनं हृदि ॥१०५।। ज्योतिप्पटलमुल्लङध्य प्रययुर्दैवनायकाः । तन्यन्तश्चेन्द्रचापानि खेऽङ्गभूषणरश्मिभिः ।।१०।। क्रमात्प्रापुः सुराधीशा महोत्सवशतैः परैः । विभूत्यामा महत्या च महामेरु महोन्नतम् ॥१०॥
स्थानको प्राप्त करेंगे और किाने ही स्वर्गादिको जायेंगे ।।२२।। हे देव, आप तीर्थंकरके उदय होनेसे तीन लोकमें सन्तजनों को आज परम आनन्द हो रहा है, क्योंकि आप धर्म-प्रवृत्तिके कारण हैं ॥९३॥ अतएव हे देव, हम मस्तक नमाकर आपको नकस्कार करते हैं और हर्षसे आपकी सेवा, भक्ति एवं आज्ञाको धारण करते हैं। हम अन्य देवकी सेवा-भक्ति कभी नहीं करते हैं ।।१४।। इस प्रकार वह देवेन्द्र स्तुति करके हाथीपर बैठकर और उस जगन्नाथको अपनी गोद में विराजमान कर सुमेरुपर चलने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाकर घुमाया ॥९५॥ उस समय सब देवोंने 'हे प्रभो, आपकी जय हो, आप आनन्दको प्राप्त हों, वृद्धिको प्राप्त हों इस प्रकार उच्चस्बरसे जय-जयनाद किया। उनकी इस कलकल ध्वनिसे सर्व दिशाओंके अन्तराल व्याप्त हो गये ।।९६॥
____ अथानन्तर प्रमोदसे व्याप्त शरीरवाले वे देव जय-जय शब्द उच्चारण करते हुए इन्द्रके साथ आकाशकी ओर उड़ चले ॥९७।। उस समय अत्यन्त हर्षको प्राप्त अप्सराएँ तीन प्रकारके बाजोंके साथ लीलापूर्वक आकाशमें प्रभुके आगे गमन करती हुई ही नाच कर रही थीं ॥९८॥ दिव्य कण्ठबाले गन्धर्व देव अपनी वीणाके साथ जन्माभिषेक सम्बन्धी सुन्दर गीत अनेक प्रकारसे गा रहे थे ।।२९। उस समय देव-दुन्दुभियाँ स्वर्गलोकके स्पर्शसे सर्व दिशाओंको बधिर करने वाले मधुर, अद्भुत नाना प्रकारके शब्दोंको करने लगीं ।। किन्नरोंके साथ किन्नरी देवियोंने हर्पसे सारभूत जिनेन्द्र-गुणोंसे परिपूर्ण मनोहर गीतोंका गाना प्रारम्भ किया ॥१००-१०१।। उस समय सर और असुरोंने अपनी-अपनी देवियोंके साथ भगवान के दिव्य रूपवाले शरीरको देखते हुए अनिमेष नेत्रोंका फल प्राप्त किया ।।१०२॥ सौधर्म इन्द्रकी गोद में विराजमान जगद्-गुरुके शिरपर चन्द्र के समान शुभ्र छत्रको स्वयं ईशानेन्द्रने लगाया ॥१०३॥ सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके इन्द्र क्षीरसागरकी तरंगोंके समान उज्ज्वल चमर हर्षसे ढोरते हुए उस धर्मके स्वामीकी सेवा करने लगे ।१०४॥ उस समयकी जिनेश्वर देवकी परम विभूतिको देखकर कितने ही देवोंने इन्द्रको प्रमाणताका आश्रय लेकर अपने हृदयमें सम्यग्दर्शनको स्वीकार किया ॥१०५|| वे देव-नायक ज्योतिष्पटल का उल्लंघन कर और अपने शरीरके आभूषणोंकी किरणोंसे आकाशमें इन्द्रधनुषकी शोभाको
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