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९.१०३]
नवमोऽधिकारः
इतीष्टप्रार्थनां कृत्वा व्यवहारप्रसिद्धये । नाकेशाः सार्थकं सारमिदं नामद्वयं व्यधुः ॥८॥ अयं स्यान्महतां वीरः कर्मारातिनिकन्दनात् । श्रीवर्धमान एवासौ वर्धमानगुणाश्रयात् ॥८९॥ इत्याख्याद्वयं कृत्वा तथैवातिमहोत्सवैः । आरोप्यैरावतस्कन्धं दिव्यरूपं जिनेश्वरम् ॥१०॥ विभत्या परया साकं जयनन्दादिघोषणैः । शेषकार्याय नाकेशा आजग्मुस्तत्पुरं परम् ॥९॥ तदारुध्य पुरं विष्वग् नभोभागं च तद्वनम् । तस्थुः सर्वाण्यनीकानि देवा देव्यश्चतुर्विधाः ॥१२॥ ततः कतिपयैर्देवैर्देवदेवं स देवराट् । आदायामा नृपागारं प्रविवेश श्रियोर्जितम् ॥१३॥ तत्र गृहाङ्गणे रम्ये मणिसिंहासने शिशुम् । अशिशुं गुणकान्त्याद्यैः सौधर्मन्द्रोन्यवीविशत् ॥१४॥ सिद्धार्थभूपतिः सार्ध बन्धुभिहर्षिताननः । प्रीत्या विस्फारिताक्षस्तं ददशितकान्तिकम् ॥१५॥ शच्या प्रबोधिता राज्ञी सापश्यत्स्वसुतं मुदा । तेजःपुञ्जमिवोत्पन्नं विश्वाभरणभषितम् ॥१६॥ सौधर्भशं समं शच्या तावदृष्टां जगत्पतेः । पितरौ तुष्टिमापन्नौ परिपूर्णमनोरथौ ॥१७॥ ततस्तौ जगतां पूज्यौ प्रपूज्य स्वर्गलोकजैः । विचित्रैमणिनेपथ्यैर्दिव्यश्चाम्बरदामभिः ॥१८॥ प्रीतः सौधर्मकल्पेन्द्रः प्रशशंसेत्यमामरैः । युवां धन्यौ महापुण्यवन्तौ विश्वाग्रिमो परौ ॥१९॥ लोके गुरू युवा यस्मापितरौ त्रिजगत्पितुः । पती त्रिजगतां मान्यौ जननात् त्रिजगत्पतेः ॥१०॥ विश्वोपकारिणौ जातौ युवा कल्याणभागिनौ । विश्वोपकारि तीर्थेशसुतोत्पादनहेतुतः ॥१०॥ चैत्यालयमिवागारमिदमाराध्य मद्य नः । माननीयौ युवां पूज्यौ अस्मद्गुरुसमाश्रयात् ॥१०२॥ इत्यभिष्टुत्य तौ देवं समय तस्करेऽमरेट् । क्षणं तस्थी मुदा कुवंस्तद्वातो मेरुजां वराम् ॥१०३॥
इस प्रकारसे इष्ट्र प्रार्थना करके इन्दोंने लोकव्यवहारकी प्रसिद्धिके लिए सार्थक और सारभत ये दो नाम रखे। कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करने हेतु ये महावीर हैं और निरन्तर बढ़नेवाले गुणोंके आश्रयसे ये श्रीवर्धमान हैं ॥८८-८९॥ इस प्रकार दो नाम रखकर दिव्यरूपधारी जिनेश्वरको ऐरावत गजके कन्धे पर विराजमान करके पूर्व के समान ही अत्यन्त महोत्सव
और भारी विभूतिके साथ 'जय, नन्द' आदि शब्दोंको उच्चारण करते हुए वे देवेन्द्र शेष कार्योंको सम्पन्न करनेके लिए वापस कुण्डपुर आये ॥९०-९१॥ वहाँ आकर नगरको, आकाशको और वनोंको सर्व ओरसे घेरकर सर्व देव-सेनाएँ और चारों जातिके देव-देवियाँ यथास्थान ठहर गये ॥९२।। तत्पश्चात् कुछ देवोंके साथ उस देवराजने देवोंके देव श्रीजिनेन्द्रदेवको लेकर शोभासम्पन्न राजभवन में प्रवेश किया ॥९३॥ वहाँ राजभवनके अंगण (चौक ) में सौधर्मेन्द्रने रमणीक मणिमयी सिंहासनपर गुणकान्ति आदिसे अशिशु ( शैशवावस्थासे रहित ) किन्तु वयसे शिशु जिनेन्द्रको विराजमान किया ॥९४॥ तब बन्धुजनोंके साथ हर्षित मुख सिद्धार्थ राजाने अति प्रीतिसे आँखें फैलाकर अद्भुत कान्तिवाले बाल जिनदेवको देखा ॥९५।। इन्द्राणीके द्वारा जगायी गयी प्रियकारिणी रानीने सर्व आभूषणोंसे भूषित समुत्पन्न तेजपुंजके समान अपने पुत्रको अति हर्षके साथ देखा ॥९६। उस समय जगत्पति श्रीवर्धमान स्वामीके माता-पिता इन्द्राणीके साथ सौधर्मेन्द्रको देखकर परिपूर्ण मनोरथ हो अत्यन्त सन्तोषको प्राप्त हुए ॥९७|तत्पश्चात् सौधर्मेन्द्रने स्वर्गलोकमें उत्पन्न नाना प्रकारके मणिमयी वस्त्राभूषणोंसे और दिव्य पुष्पमालाओंसे उन जगत्पूज्य माता-पिताकी पूजा कर देवोंके साथ प्रसन्न होते हुए उनकी इस प्रकारसे प्रशंसा करने लगा-आप दोनों ही लोकके गुरु हैं, क्योंकि आप त्रिजगत्-पिताके माता-पिता हैं, त्रिजगत्पतिके उत्पन्न करनेसे आप लोग ही त्रिजगन्मान्य स्वामी हैं, संसारके उपकारी तीर्थेश पुत्रके उत्पन्न करनेके निमित्तसे कल्याणभागी आप दोनों ही विश्वके उपकारी हैं ।।९८-१०१।। आज आपका यह भवन जिनमन्दिरके समान हमारे लिए आराध्य है। हमारे परमगुरुके आश्रयसे आप दोनों ही हमारे लिए माननीय और पूज्य हैं ॥१०२।। इस प्रकार देवोंका स्वामी सौधर्मेन्द्रने माता-पिताकी स्तुति करके और उनके
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