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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[९,७४मुक्तिरामा महामाग चासक्ता त्वयि वर्तते । स्निह्यन्ति त्रिजगद्व्यास्त्वद्गुणैरञ्जिताशयाः ॥७॥ मोहमल्लविजेतारं त्रातारं शरणार्थिनाम् । मोहान्धकूपपाताच हन्तारं कर्मविद्विषाम् ॥७५॥ नेतारं भव्यसार्थानां शाश्वते पथि तीर्थकृत् । कर्तारं धर्मतीर्थस्य विदस्त्वामामनन्त्यहो ॥६॥ अद्य जन्माभिषेकेण वयं नाथ पवित्रिताः । ते गुणस्मरणेनैव नोऽभवन्नि मलं मनः ॥७७॥ भवत्स्तुतिशुभालापर्जातं नः सफलं वचः । गात्रं चावयः साध सेवया ते गुणाम्बुधे ॥७॥ मणिः शुद्धाकरोद्भतो यथा संस्कारयोगतः । दीप्यतेऽधिकमीश त्वं तथा स्नानादिसंस्कृतः ॥७९॥ त्रिजगत्स्वामिनां स्वामी त्वं नाथासि महान भुवि । पतिर्विश्वपतीनां त्वं जगद्धन्धुरकारणः ॥८॥ अतो देव नमस्तुभ्यं परमानन्ददायिने । नमस्ते चिस्त्रिनेत्राय नमस्ते परमात्मने ॥१॥ नमस्तीर्थकृते तुभ्यं नमः सद्गुणसिन्धवे । मलस्वेदातिगात्यन्तदिव्य देहाय ते नमः ॥४२॥ निर्वाणदर्शिने तुभ्यं नमः कर्मारिनाशिने । जितपञ्चाक्षमोहाय पञ्चकल्याणभागिने ॥८३॥ नमो निसर्गपूताय भुक्तिमुक्त्येकदायिने । नमोऽतिमहिमाप्ताय नमोऽकारणबन्धवे ॥८४॥ नमो मुक्त्यङ्गनामत्रे नमो विश्वप्रकाशिने । ब्रिजगत्स्वामिने तुभ्यं नमोऽधिगुरवे सताम् ॥८५।। त्वां मुदे हेत्यभिष्टुत्य देव नाशास्महे वयम् । त्रिजगत्सर्वसाम्राज्यं किन्तु देहि जगद्विताम् ॥८६॥ सामग्री सकलां पूणां मोक्षसाधनकारिणीम् । त्वत्समां कृपयास्माकं दाता न त्वत्समो यतः ॥८७॥
ज्ञानियोंको भी मार्ग दिखाकर उनकी स्वर्ग और मुक्तिकी सिद्धिके लिए उत्पन्न हुए हैं ॥७३।। हे महाभाग, मुक्तिरामा आपमें आसक्त हो रही है और तीन जगत्के भव्य जीव भी आपके गुणोंसे अनुरंजित हृदयवाले होकर आपसे परम स्नेह रखते हैं । ७४|| अहो भगवन् , ज्ञानी लोग आपको मोहमल्लका विजेता, शरणार्थियोंको मोहान्धकूपमें गिरनेसे बचानेवाला रक्षक, कमशत्रुओका नाशक, भव्य सार्थवाहोको शाश्वत मुक्तिमागमें ले जानेवाला नेता और धमतीर्थका कर्ता तीर्थकर मानते हैं ।।७५-७६।। हे नाथ, आज आपके जन्माभिषेकसे हम लोग पवित्र हुए हैं, और आपके गुणोंका स्मरण करनेसे हमारा मन निर्मल हुआ है । आपकी शुभ स्तुति करनेसे हमारे वचन सफल हुए हैं और हे गुणसागर, आपकी सेवासे सब अंगोंके साथ हमारा शरीर पवित्र हुआ है ।।७७-७८॥ हे ईश, शुद्ध खानिसे उत्पन्न हुआ मणि जैसे संस्कारके योगसे और भी अधिक चमकने लगता है, उसी प्रकार स्नान आदिके संस्कारको प्राप्त होकर आप और भी अधिक शोभायमान हो रहे है ।।७९|| हे नाथ, आप तीन जगतके स्वामियों के स्वामी हैं, संसारमें समस्त विश्वपतियोंके आप महान पति हैं, और संसारके अकारण बन्धु हैं ।।८०।। अतः हे देव, परम आनन्दके देनेवाले आपके लिए नमस्कार है, ज्ञानरूप तीन नेत्रोंके धारक आपके लिए नमस्कार है, परमात्मस्वरूप आपके लिए नमस्कार है, तीर्थके प्रवर्तन करनेवाले आपको नमस्कार है, सद्गुणोंके सागर आपको नमस्कार है, प्रस्वेद मल आदिसे रहित अत्यन्त दिव्यदेहवाले आपको नमस्कार है, कर्मशत्रुओंका नाश करनेवाले आपको नमस्कार है, पाँचों इन्द्रियोंको और मोहको जीतनेवाले आपको नमस्कार हे, पंचकल्याणकोंके भोगनेवाले आपको नमस्कार है, स्वभावसे पवित्र और भुक्ति-(स्वर्गीय सुख) मुक्तिके देनेवाले आपको नमस्कार है, महामहिमाको प्राप्त आपको नमस्कार है, अकारण बन्धु आपको नमस्कार है, मुक्तिरामाके भर्तार आपको नमस्कार है । विश्वके प्रकाश करनेवाले आपको नमस्कार है, त्रिजगत्के स्वामी आपको नमस्कार है और सज्जनोंके महागुरु आपको नमस्कार है ॥८१-८५॥
हे देव, यहाँपर इस प्रकार हर्षसे आपकी स्तुति करके हम तीन लोकके सर्व साम्राज्यको लेनेकी आशा नहीं करते हैं, किन्तु जगत्का हित करनेवाली, अपने समान ही पूर्ण सर्वसामग्री कृपा करके हमें दीजिए, क्योंकि संसार में आपके समान और कोई दाता नहीं है ।।८६-८७।।
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