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नवमोऽधिकारः लक्ष्म्याः पुञ्ज इवोद्भुतस्तेजसा वा निधिर्महान् । सौन्दर्यस्येव संघातः सद्गुणानामिवाकरः ।।५९॥ भाग्यानामिव संवासो राशि, यशसां पराः । स्वभावरुचिर: कायस्तदामादीशिनोऽमलः ॥६॥ इत्थं प्रसाध्यमानं तं शक्रोत्सङ्गस्थितं शची। स्वयं विस्मयमायासीत्पश्यन्ती रूपसंपदः ॥६॥ तदातनी परी शोभा वीक्ष्य सर्वाङ्गशालिनः। विभोस्तृप्तिमनासाद्य द्विनेत्राभ्यांच्युतोपमाम् ॥१२॥ पुनस्तामीक्षितु चक्र साश्चर्यहृदयः सुरेट् । सहस्रनयनान्याशु निमेषविमुखान्यपि ॥६३।। देवाः सर्वेऽखिला देच्यो महती रूपसंपदम् । ददृशुश्च प्रभोः प्रीत्यानिमेषैर्दिव्यलोचनैः ॥६॥ ततः परं प्रमोदं ते प्राप्य शक्रा महाधियः । उद्ययुस्तमिति स्तोतु तीर्थकृत्पुण्यजैगुणैः ॥६५॥ त्वं देव स्नातपूताङ्गः सहजातिशः परैः । भक्त्याद्य स्नापितोऽस्माभिः केवलं स्वाधहानये ।।६६।। निजगन्मण्डनोभत त्वं प्रकृत्यातिसुन्दरः । विना व मण्डनः प्रीत्या मण्डितः स्वसुखाप्तये ॥६७।। संचरन्ति विभो तेऽय महत्यो गुणराशयः । प्रपूर्य सकलं विश्वं सुरेशां हृदयेष्वपि ॥६॥ त्वत्त: कल्याणमाप्स्यन्ति देव कल्याणकाक्षिणः । भवद्वाण्या हनिष्यन्ति मोहिनो मोहशात्रवम् ॥६॥ त्वयोद्दिष्टमहातीर्थपोतेन भववारिधिम् । अनन्तमुत्तरिष्यन्ति रत्नत्रयधनेश्वराः ॥७॥ भवद्वाक्किरणर्नाथ मिथ्याज्ञानतमोऽञ्जसा। हतं भव्यात्मनां शीघ्रं विनश्यति न संशयः ॥७॥ अनय दृष्टिचिद्वृत्तरत्नादीन् शिवकारिणः । प्रादुर्बभूविथेशत्वं दातु दाता महान् सताम् ।। ७२॥ त्वं स्वामिन् केवलं नात्रोत्पन्नः स्वरय शिवाप्तये । किंतु स्वम क्तिसिद्धयर्थ धीमतां चाध्वदर्शनात् ।।३
हुए, मानो लक्ष्मीके पुंज ही हों, अथवा तेजोंके निधान हों, अथवा सौन्दर्य के समूह हों, अथवा सद्-गुणोंके सागर ही हों, अथवा भाग्यों के निवास हों, अथवा यशों की उज्ज्वल राशि हों। इस प्रकार स्वभावसे ही सुन्दर और निर्मल प्रभुका शरीर उक्त आभूषणोंसे और भी अधिक शोभायमान हो गया ॥५८-६०॥
इस प्रकार आभषणोंसे भषित और इन्द्रकी गोद में विराजमान उन भगवानकी रूपसम्पदाको देखती हुई ची स्वयं ही आश्चर्यको प्राप्त हुई ॥६।। उस समय सर्वांगशोभित प्रभुकी परम अनुपम शोभाको दो नेत्रोंसे देखने पर तृप्त नहीं होते हुए आश्चर्य युक्त हृदयवाले इन्द्रने और भी अधिक दृढ़तासे देखने के लिए निमेष रहित एक हजार नेत्र बनाये ॥६२-६३।। उस समय सभी देवों और देवियोंने प्रभुके शरीरकी भारी रूप सम्पदाको परम प्रीतिके साथ निर्निमेप दिव्य नेत्रोंसे देखा ॥६४॥
तदनन्तर परम प्रमोदको प्राप्त हुए वे महाबुद्धिशाली इन्द्रगण तीर्थंकर प्रकृतिके पुण्यसे उत्पन्न हुए गुणोंके द्वारा इस प्रकार स्तुति करनेके लिए उद्यत हुए ।।६५।। हे देव, आप स्नानके विना ही जन्मजात परम अतिशयोंके द्वारा पवित्र शरीरवाले हैं, आज केवल अपने पापोंके नाश करने के लिए हमने भक्तिसे आपको स्नान कराया है ।।६६।। हे तीन लोकके आभूपण स्वरूप भगवन् , आप स्वभावसे ही विना आभूपणोंके अति सुन्दर हो, हमने तो केवल सुखकी प्राप्तिके लिए प्रीतिसे आपको आभषणोंसे मण्डित किया है ॥६७॥ हे प्रभो. आपके महाग गणोंकी राशि सर्वविश्वको पूर करके आज इन्द्रोंके हृदयमें भी संचार कर रही है ।।६८।। हे देव, कल्याणके इच्छुक लोग आपसे कल्याणको प्राप्त होंगे और मोहीजन आपकी वाणीसे अपने मोहशत्रुका नाश करेंगे ॥६९।। रत्नत्रय धनके धारण करनेवाले भव्य जीव आपके द्वारा उपदिष्ट महातीर्थरूप जहाजसे इस अनन्त संसार सागरके पार उतरंगे ॥७०।। हे नाथ, आपकी वचन किरणोंसे भव्यात्माओंका मिथ्याज्ञानरूप अन्धकार शीघ्र विनाशको प्राप्त होगा, इसमें कोई संशय नहीं है ॥७१।। हे ईश, मोक्ष प्राप्त करनेवाले अमूल्य सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि रूप रत्न देनेके लिए आपसे प्रकट हुए हैं, इसलिए आप सज्जनोंके महान् दाता हो ।।७२।। हे स्वामिन, आप यहाँ पर केवल अपनी मुक्तिकी प्राप्तिके लिए ही नहीं उत्पन्न हुए हैं, किन्तु
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