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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[८.१२३तस्य दक्षिणदिग्भागेऽस्त्यन्यसिंहासनं महत्। सौधर्मेन्द्रस्य चेशानेन्द्रस्योत्तरदिशि स्फुटम् ॥१२३॥ तस्य मध्यस्थहर्यासनस्योपरि सुरेश्वरः। विभूत्या परयानीय सुरैः साधं महोत्सवैः ॥१२४।। परीत्याधं गिरीन्द्रं तं सुरचारणसेवितम् । न्यधाच्छीतीर्थकर्तारं प्राङ्मुखं स्नानसिद्धये ॥१२५॥
इति परमविभूत्या तीर्थकृत्पुण्यपाकात्सकलसुरगणेशाः स्थापयामासुरन्त्यम् । इह जिनवरराजं हीति मत्वा सुभव्या भजत विमलपुण्यं कारणहूँ यष्टसंख्यः ॥१२६॥ पुण्यं तीर्थकरादिभूतिजनकं पुण्यं श्रितास्तद्विदः
पुण्येनैव पवित्रितं जगदिदं पुण्याय भद्रा क्रिया। पुण्यान्नापर एव शर्मजनकः पुण्यस्य मूलं व्रतं
पुण्येऽनेकगुणा भवन्त्यसुमतां मां पुण्य, पूतं कुरु ॥१२७।। वीरो वोरबुधैः स्तुतश्च महिती वीरं प्रवीराः श्रिताद
वीरेणाशु समाप्यते गुणचयो वीराय भक्त्या नमः । वीरानास्त्यपरः स्मरारिहतको वीरस्थ दिव्या गुणा
वीरे मां विधिना स्थितं विधिजये भो वीर वीरं कुरु ॥१२८॥
इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते वीरवर्धमानचरिते प्रियकारिणीप्रज्ञाप्रकर्षतीर्थ
कृत्(जन्म)सुराचलानयनवर्णनो नामाष्टमोऽधिकारः ।।८।।
शोभित है। वह सुमेरुके दूसरे शिखरके समान मालूम पड़ता है ॥१२१-१२२।। उस सिंहासनकी दक्षिण दिशामें सौधर्मेन्द्र के खड़े होनेका और उत्तर दिशामें ईशानेन्द्र के खड़े होनेका एकएक सुन्दर सिंहासन है ।।१२३।। देवोंके स्वामी सौधर्मेन्द्रने उपर्युक्त तीन सिंहासनोंमें से बीचके सिहासनके ऊपर भारी विभूतिसे, महान् उत्सवोंके द्वारा देवोंके साथ लाकर, देव और चारणऋद्धिवालोंसे सेवित उस गिरिराज सुमेरुकी प्रदक्षिणा देकर जन्माभिषेककी सिद्धिके लिए तीर्थंकर भगवानको पूर्वमुख विराजमान किया ॥१२४-१२५।।
इस प्रकार तीर्थंकर प्रकृति के पुण्य-परिपाकसे समस्त देव और उनके स्वामी इन्द्रोंने परम विभूतिके साथ अन्तिम श्री वर्धमान जिनराजको वहाँपर स्थापित किया । ऐसा मानकर भव्यजन सोलह कारण भावनाओंसे निर्मल पुण्यकी आराधना करें ॥१२६।। यह उत्कृष्ट पुण्य तीर्थंकरादिके वैभवका जनक है, ज्ञानी जन पुण्यका आश्रय लेते हैं, पुण्यसे ही यह जगत् पवित्र होता है, उत्तम क्रियाएँ पुण्यके लिए होती हैं, पुण्यसे अतिरिक्त और कोई वस्तु सुखकारक नहीं है, पुण्यका मूल कारण व्रत है, पुण्यसे प्राणियोंके अनेक गुण प्राप्त होते हैं, इसलिए हे पुण्य, तू मुझे पवित्र कर ।। १२७।। वीरजिन वीर ज्ञानीजनोंके द्वारा संस्तुत और पूजित हैं, उत्तम वीर पुरुष वीर जिनका आश्रय लेते हैं, वीरके द्वारा शीघ्र ही उत्तम गुण-समुदाय प्राप्त होता है, इसलिए वीरनाथको भक्तिसे नमस्कार है। वीरसे भिन्न और कोई मनुष्य कामशत्रुका नाशक नहीं है, वीर जिनेन्द्र के गुण दिव्य हैं, वीरनाथमें विधिपूर्वक स्थित मुझे हे वीर भगवन , कर्म-विजयके लिए वीर करो ॥१२८ । इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीति विरचित श्रीवीरवर्धमानचरितमें प्रियकारिणीके प्रज्ञा प्रकर्ष, तीर्थकरका जन्म और सुमेरुपर ले जानेका वर्णन करनेवाला
आठवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥८॥
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