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८.१२२ ]
अष्टमोऽधिकारः
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वेदस्योन्नतिभूर्लक्षकमूनमेव च । योजनानां सहस्रेण सहस्रं कन्द उन्नतः ||१०८ || तस्याद्यं भद्रशालाख्यं वनं भद्रं विराजते । चतुर्महाजिनागारैविशालध्वजभूषितैः ॥१०९ ॥ शतैक योजना | मैस्तदर्धविस्तृतैः परैः । उभयोऽर्धसमुत्तुङ्गे रत्नोपकरणान्वितैः ॥ ११० ॥ गव्यूतिद्विसहस्राणि गत्वा पृथ्व्याश्च सुन्दरम् । एतस्य मेखलायां भ्राजतेजन्यं नन्दनं वनम् ॥ १११ ॥ परिधानमिवाने कपादपैः कूटधामभिः । स्वर्णरत्नमयैर्दिव्यैश्चतुश्चैत्यालयोत्तमैः ।। ११२ ।। वैयोजन सहस्राणि सार्धद्विषष्टिसंख्यया । गत्वापरं महद्रम्यं भाति सौमनसं वनम् ॥ ११३ ॥ तस्यैवेवोपसंख्यानं सर्वर्तुफलदैदुमैः । अष्टोत्तरशता चढयैश्चतुः श्रीजिनधामभिः ॥ ११४ ॥ नवास्य पत्रिंशत्सहस्रयोजनान्यपि । मूर्ध्नि पाण्डुकमेवान्त्यं राजते वनमुल्वणम् ||११५|| शिरोरुहमिवातीव सुन्दरं द्रुमसंचयैः । चतुश्चैत्यालयैस्तुङ्गैः शिलासिंहासनादिभिः ।। ११६ ।। तन्मध्ये चूलिका भाति मुकुटश्रीरिवोर्जिता । चतुःखयोजनोत्सेधा स्वर्गाधोवर्तिनी स्थिरा ॥११७॥ मेरोरीशानदिग्भागे महती पाण्डुकाया । योजनानां शठायामा पञ्चाशद्विस्तृता शिला ||११८ ।। अष्टच्छ्रिता पवित्राङ्गा क्षालिता क्षीरवारिभिः । अर्धचन्द्रसमाकारा भातीवान्ध्याष्टमी धरा ||११९ ।। छत्रचामरभृङ्गारसु प्रतिष्ठकदर्पणैः । कलशध्वजतालैश्च मङ्गलद्रव्यधारणैः ॥ १२० ॥ वैडूर्यसंनिभं तस्या मध्ये सुहरिविष्टरम् । कोशपादोच्छ्रितं क्रोशपादभूभाग विस्तृतम् ॥१२१॥ तदर्धमुखविस्तारं जिनस्नानैः पचित्रितम् । राजते मणितेजोभिर्भेरोः शृङ्गमिवापरम् ॥ १२२ ॥
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विस्तारते, तथा सैकड़ों प्रकारके महोत्सव करते हुए क्रमसे परम विभूतिके साथ महान उन्नत महामेरुपर पहुँचे || १०६-१०७ ।। उस सुमेरु पर्वत की ऊँचाई इस भूमितलसे एक हजार योजन कम एक लाख योजन है । भूमिमें उसका स्कन्द एक हजार योजन का है || १०८॥ उस सुमेरुपर्वत के भूमितलपर भद्रशाल नामक प्रथम वन तीन कोट और ध्वजाओंसे भूषित चार महान् चैत्यालयोंसे शोभायमान है || १०९ ॥ ये चैत्यालय पूर्व-पश्चिम दिशामें एक सौ योजन लम्बे, उत्तर-दक्षिण दिशामें पचास योजन चौड़े और उन दोनोंके आधे अर्थात् पिचहत्तर योजन ऊँचे हैं, तथा रत्नोंके उपकरणोंसे युक्त हैं ॥ ११० ॥ पृथ्वीसे अर्थात् भद्रशाल वनसे
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हजार कोश अर्थात् पाँच सौ योजन ऊपर जाकर सुमेरुकी प्रथम मेखला ( कटनी ) पर दूसरा सुन्दर वन है ॥ १११ ॥ यह वन भी अनेक प्रकारके वृक्षोंसे, कूट प्रासादोंसे, तथा सुवर्ण - रत्नमय दिव्य उत्तम चार चैत्यालयोंसे शोभित है ॥ ११२ ॥ | इससे ऊपर साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाकर तीसरा महा रमणीक सौमनस नामका वन है । यह भी सर्व ऋतुओंके फल देनेवाले वृक्षोंसे और एक सौ आठ-आठ प्रतिमाओंसे युक्त चार श्रीजिनालयोंसे संयुक्त है, शेष कथन नन्दन वनके समान समझना चाहिए ।। ११३ ११४॥ | इससे ऊपर छत्तीस हजार योजन जाकर सुमेरुके मस्तक पर चौथा उत्तम पाण्डुकवन शोभित है ॥ ११५ ॥ वह केशों के समान वृक्ष समूहोंसे, चार उत्तुंग चैत्यालयोंसे, पाण्डुकशिला और सिंहासनादिसे अत्यन्त सुन्दर है ||११६ | उस पाण्डुक वनके मध्य में मुकुटश्रीके समान उत्तम चूलिका शोभित है । वह चालीस योजन ऊँची है, स्वर्गके अधोभागको स्पर्श करती है और स्थिर है। ||११७|| सुमेरुकी ईशान दिशामें एक विशाल पाण्डुक शिला है, जो सौ योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी है, तथा आठ योजन ऊँची है, क्षीरसागरके जलसे प्रक्षालित होनेके कारण पवित्र अंगवाली है, अर्ध चन्द्रके समान आकारवाली है, जो कि ईषत्प्राग्भार पृथ्वी के समान शोभती है ।। ११८ - ११९ ।। वह छत्र, चामर, भृंगार, स्वस्तिक, दर्पण, कलश, ध्वजा और ताल इन अष्ट मंगल द्रव्योंको धारण करती है ॥ १२०॥ उस पाण्डुक शिलाके मध्यमें वैडूर्यमणिके समान वर्णवाला सिंहासन है, जो चौथाई कोश ऊँचा, चौथाई कोश लम्बा और उसके आधे प्रमाण चौड़ा है। तीर्थंकरोंके जन्माभिषेकोंसे पवित्र है, मणियोंके तेजसे
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