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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[ ८.६३अम्लान कुसुमैव॒ष्टिं प्रचक्रुः सुरभूरूहाः । चतुर्णिकायदेवेशामासनानि च कम्पिरे ॥६३॥ अनाहताः पृथुध्वाना घण्टादिप्रमुखानकाः । दध्वनु किनां लोके वदन्तीव जिनोत्सवम् ॥६४॥ सिंहशडामहाभेरीरवा आसन स्वयं तदा । सहान्यैः सकलाश्चयनिकायत्रितये परे ॥६५॥ चिस्तैः सामराः शक्रा ज्ञात्वा जन्मजिनेशिनः । तत्कल्याणे मतिं चक्रुः सौधर्मेन्द्रादयोऽखिलाः ॥६६॥ तदेवेन्द्राज्ञया देवपृतना निर्ययुर्दिवः । महाध्वानाः क्रमेणव महाब्धेरिव वीचयः ॥६॥ हस्तिनोऽश्वा रथा गन्धर्वा नर्तक्यः पदातयः । वृषमा इति देवेशां सप्तानीकानि निर्ययुः ॥६॥ अथ सौधर्मकल्पेश आरुह्य देवदन्तिनम् । ऐरावतं सहेन्द्राण्या प्रतस्थे निर्ज रैर्वृतः ॥६९॥ ततः सामानिकाद्या हि निःशेषा नाकिनो मुदा । स्वस्वभूत्या श्रिता धर्मोद्यतास्तं परिवबिरे ॥७॥ दुन्दुभीनां महाध्वानैर्देवानां जयघोषणैः । तदाभवन्महाध्वानः सप्तानीकेषु विस्फुरन् ॥१॥ केचिद्धसन्ति वल्गन्ति नृत्यन्त्यास्फोटयन्ति च । पुरो धावन्ति गायन्ति तत्र देवाः प्रमोदिनः ॥७२॥ ततः खाङ्गणमारुध्य स्वैः स्वैइछत्रैर्ध्वजोत्करः । विमानैर्वाहनैर्वाधरवतीर्य महीतलम् ॥७३॥ विभूत्या परया साधं क्रमात्कुण्डपुरं परम् । चतुर्णिकायदेवेशाः प्रापुर्नाक्यङ्गनावृताः ॥७॥ नटा मध्यो भागेन परितस्तत्पुरं सुरैः । देवीभिरभवद् शत्र
शकायश्च नृपाङ्गणम् ॥७५॥ ततः शची प्रविश्याशु प्रसवागारमूर्जितम् । दिन्यदेहकुमारेण सा वीक्ष्य जिनाम्बिकाम् ॥७६॥
मुहुः प्रदक्षिणीकृत्य मूर्ना नत्वा जगद्गुरुम् । जिनमातुः पुरः स्थित्वा श्लाघते स्मेति तां गुणः ॥७॥ दिशाएँ निर्मल हो गयीं और आकाशमें मन्द सुगन्धित पवन चलने लगा ॥६२॥ स्वर्गके कल्पवृक्षोंने खिले हुए फूलोंकी वर्षा की, और चारों जातिके देवेन्द्रोंके आसन काँपने लगे ॥६३।। स्वर्गलोकमें विना बजाये ही गम्भीर ध्वनि करनेवाले घण्टा आदि प्रमुख बाजे बजने लगे, मानो वे प्रभु के जन्मोत्सवकी ही बाट जोह रहे हों ॥१४॥ शेष तीन जातिके देवोंके यहाँ सिंह, शंख और भेरीके शब्द उस समय अपने आप ही अन्य आश्चर्योके साथ होने लगे ॥६५॥ इन सब चिह्नोंसे देवोंके साथ इन्द्रोंने तीर्थंकर देवका जन्म जानकर सब देवोंने भगवान्के जन्मकल्याणक करनेका विचार किया ॥६६॥ तभी इन्द्रकी आज्ञासे देव-सेना महाध्वनि करती हुई महासमुद्रकी तरंगों के समान क्रमशः स्वर्गसे निकली ॥६७। हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पयादे और बैल यह सात प्रकारकी देवोंकी सेना निकली ।।६८।। तभी सौधर्म स्वर्गका स्वामी ऐरावत नामके देव गजराजपर इन्द्राणीके साथ बैठकर देवोंसे घिरा हुआ स्वर्गसे चला ॥६॥
तत्पश्चात् सामानिक आदि समस्त देवगण अपनी-अपनी विभूतिके साथ धर्ममें उद्यत होकर और इन्द्रको घेरकर चले ।।७०।। उस समय दुन्दुभियोंकी महाध्वनिसे तथा देवोंके जय-जयकारसे सातों प्रकारकी सेनाओंमें फैलता हुआ महान शब्द हुआ ॥७१।। उस समय हर्षित होते हुए कितने ही देव हँस रहे थे, कितने ही कूद रहे थे, कितने ही नाच रहे थे, कितने ही हाथोंसे तालियाँ बजा रहे थे, कितने ही आगे दौड़ रहे थे और कितने ही देव गा रहे थे ॥७२॥ तब वे देव अपने-अपने छत्रोंसे, ध्वजाओंके समूहोंसे, विमानोंसे, वाहनोंसे और बाजोंसे गगनांगणको व्याप्त करते हुए भूतलपर उतरे और परम विभूतिके साथ अपनीअपनी देवांगनाओंसे घिरे हुए वे चतुर्निकायके देवेन्द्र क्रमसे उस उत्तम कुण्डपुर पहुंचे ।।७३-७४।। उस समय नगरका मध्य और ऊर्ध्व भाग देव देवियोंके द्वारा सर्व ओरसे घिर गया, तथा शक्र आदि इन्द्रोंके द्वारा राजाका आँगन व्याप्त हो गया ।।७५॥
तत्पश्चात् शची शीघ्र प्रकाशमान प्रसूतिगृह में प्रवेश करके, दिव्य देह के धारक बालकके साथ जिन-माताको देखकर, बार-बार उनकी प्रदक्षिणा करके मस्तकसे जगद्-गुरुको नमस्कार करके और जिनमाताके आगे खड़ी होकर गुणोंके द्वारा उनकी इस प्रकार स्तुति
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