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८.३५ ]
अष्टमोऽधिकारः महागुरुगुरूणां को यो गरीयान् जगत्त्रये । सर्वैश्वातिशयैर्दिव्यैर्गुणैरन्तातिगैर्जिनेट् ।।२३।। प्रामाण्यं सदाचः कस्य यः सर्वज्ञो जगद्धितः । निर्दोषो वीतरागश्च तस्य नान्यस्य जातचित् ॥२४॥ पीयूषमिव किं पेयं जन्ममृत्युविषापहम् । जिनेन्द्रास्योगवं ज्ञानामृतं दुश्चिदिषं न च ॥२५॥ किं ध्येयं धीमतां लोके ध्यानं च परमेष्ठिनाम् । जिनागमं स्वतत्त्वं वा धर्मशुक्लं न चापरम् ॥२६॥ त्वरितं करणीयं किं येन नश्यति संसृतिः । अनन्ता रष्टिचिवृत्तयमादि तन्न चापरम् ॥२७॥ सहगामी सतां कोऽत्र 'धर्मबन्धुर्दयामयः । सर्वत्रापदि सत्वाता पापारिरपि नापरः ॥२८॥ धर्मस्य कानि कर्त णि तपो रत्नत्रयाणि च । व्रतशीलानि सर्वाणि क्षमादिलक्षणान्यपि ॥२९॥ धर्मस्य किं फलं लोके या विश्वेन्द्रविभतयः। सत्सुखं श्रीजिनादीनां तत्सर्व तत्फलं परम् ॥३०॥ लक्षणं कीदृशं धर्मिणामन शान्तता परा । निरहंकारता शुद्धक्रिया तत्परतानिशम् ॥३१॥ कानि पापस्य कर्तृणि मिथ्यात्वादीनि खानि च । कोपादीनि कुसंगानि षोढानायतनान्यपि ॥३२॥ पापस्य किं फलं यच्चामनोज्ञं दुःखकारणम् । दुर्गतो क्लेशरोगादिनिन्द्यं सर्व हि तत्फलम् ॥३३॥ पापिना लक्षणं कीदृग्विधं तीवकषायता । परनिन्दात्मशंसादिरौद्रत्वादीनि तत्परम् ॥१४॥ को लोभी सर्वदा योऽत्रकं धर्म मजते सुधीः । मुमुक्षुर्विमलाचारैस्तपोयोगैश्च दुःकरैः ॥३५।।
जीवोंका हित करनेवाला कौन है ? ( उत्तर-) जो चेतन-धर्म तीर्थका कर्ता है, वही अनन्त सुखके लिए तीन जगत्का हित करनेवाला है ॥२२॥ (प्रश्न-) गुरुओंमें सबसे महान गुर कौन है ? ( उत्तर-) जो सर्व दिव्य अतिशयोंसे अनन्त गुणोंसे गरिष्ठ हैं, ऐसे जिनराज ही महान गुरु हैं ।।२३॥ (प्रश्न-) इस लोकमें किसके वचन प्रामाणिक हैं ? ( उत्तर-) जो सर्वज्ञ, जगत्-हितैषी, निर्दोष और वीतराग है, उसके ही वचन प्रामाणिक हैं, अन्य किसी के नहीं हैं ।।२४।। (प्रश्न-) जन्म-मरणरूप विषको दूर करनेवाली, अमृतके समान पीने योग्य क्या वस्तु है ? ( उत्तर-) जिनेन्द्रदेवके मुखसे उत्पन्न हुआ ज्ञानामृत ही पीनेके योग्य है । मिथ्याज्ञानियोंके विषरूप वचन नहीं ॥२५।। (प्रश्न-) इस लोकमें बुद्धिमानोंको किसका ध्यान करना चाहिए ? (उत्तर-) पंच परमेष्ठियोंका, जिनागमका, आत्मतत्त्वका और धर्मशक्लरूप ध्यानोंका ध्यान करना चाहिए। अन्य किसीका नहीं ।।२६।। (प्रश्न-) शीघ्र क्या काम करना चाहिए ? ( उत्तर-) जिससे संसारका नाश हो, ऐसे अनन्त दर्शन, ज्ञान, चारित्रके पालनेका काम करना चाहिए, अन्य काम नहीं ॥२७॥ (प्रश्न-) इस संसार सज्जनोंके साथ जानेवाला कौन है ? ( उत्तर-) पापका नाशक, सर्वत्र आपदाओंमें रक्षक ऐसा दयामयी धर्म बन्धु ही साथ जानेवाला है, अन्य कोई नहीं ॥२८॥ (प्रश्न-) धर्मके करनेवाले कौन हैं ? ( उत्तर-) तप, रत्नत्रय, व्रत, शील और क्षमादि लक्षणवाले सर्व कार्य धर्मके करनेवाले हैं ।।२९।। ( प्रश्न - ) इस लोकमें धर्मका क्या फल है ? ( उत्तर- ) समस्त इन्द्रोंकी विभूति, तीर्थ करादिकी लक्ष्मी और उत्तम सुखकी प्राप्ति ही धर्मका उत्तम फल है ॥३०॥ ( प्रश्न-) धर्मात्माओंका क्या लक्षण हैं ? ( उत्तर-) उत्तम शान्त और अहंकार-रहित स्वभाव होना, तथा शुद्ध क्रियाओंके आचरणमें नित्य तत्पर रहना ये धर्मात्माके लक्षण हैं ॥३१॥ ( प्रश्न-) कौनसे कार्य पापके करनेवाले हैं ? ( उत्तर-) मिथ्यात्व आदिक, पंच इन्द्रियाँ, क्रोधादि कषाय, कुसंग और छह अनायतन ये सब पापके करनेवाले हैं ॥३२॥
न-) पापका क्या फल है ? (उत्तर-) अप्रिय और दुखके कारण मिलाना, दुर्गतिमें रोग-क्लेशादि भोगना और निन्द्य पर्याय पाना ये सर्व ही पापके फल हैं ॥३३॥ (प्रश्न-) पापियोंके लक्षण किस प्रकारके हैं ? ( उत्तर - ) तीव्र कषायी होना, पर-निन्दा और अपनी प्रशंसा करना, रौद्र कार्य करना इत्यादि पापियोंके लक्षण हैं ॥३४॥ ( प्रश्न- ) महालोभी कौन है ? ( उत्तर- ) जो बुद्धिमान् संसारमें सदा एकमात्र धर्मका ही सेवन करता है, और
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