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७.८७]
सप्तमोऽधिकारः
प्रभाते श्रावकाः कचित् समतापनमानसाः। सामायिकं प्रकुर्वन्ति कारण्यहुताशनम् ॥७३॥ उत्थाय शयनात् केचित् सर्वविघ्नविनाशकान् । परमेटिनमस्कारान् जपन्ति श्रीसुखाकरान् ॥७॥ महाप्राज्ञाः परे ज्ञाततत्त्वाः संरुध्य मानसम् । भजन्ते धर्मकद्धयानं कर्मन्नं शर्मसागरम् ॥७५॥ अन्ये धीरा भजन्ति स्म कायं त्यक्त्वा शिवाप्तये । पुत्सगं विधिहन्तारं स्वर्मोक्षसुखसाधनम् ॥७६॥ इत्यायैः शुभकर्मोधैर्दक्षो लोकः प्रवर्तते । स्वहिताय प्रभातेऽस्मिन् धर्मध्यानेन संप्रति ॥७॥ जिनसूर्योद्गमे यद्वत् खद्योता इव दुर्मताः । जायन्ते निःप्रभास्तद्वच्छेन्दुतारा इनोद्गमे ॥७॥ अर्हद्-भानूदये यद्वत्कुलिङ्गितस्करोस्कराः । प्रणश्यन्ति तथादित्योदये चौरा भयातुराः ॥७९॥ यथाज्ञानतमो दिव्यध्वन्यं शुमिर्जिनांशुमान् । निर्णाशयति तद्वच भास्वानैश्यं तमोऽशुमिः ॥८॥ सन्मार्गसुपदार्थादीन् शुद्धवाकिरणैर्यथा । प्रकाशयति तीर्थेशस्तथेनः किरणैरपि ॥४॥ यथाहद्वचनांश्वौधैर्विकासं यान्ति निश्चितम् । मनोऽम्बुजानि भन्यानां तथान्जानीनरश्मिभिः ॥८॥ पापिहृत्कुमुदान्याशु लमते म्लानिमर्हतः । दिन्यवाकिरणस्तद्वत् कुमुदानीनमाचयः ॥४३॥ प्रातः कालोऽधुना देवि वर्तते विश्वशर्मकृत् । धर्मध्यानस्य योग्योऽयं सर्वाभ्युदमसाधकः ॥८॥ अतः पुण्यास्मिके पुण्यं कुरु मुक्त्वाशुतल्पकम् । सामायिकस्तवाद्यैस्त्वं कल्याणशतभाग्भव ॥८५।। इति तत्सारमाङ्गल्यगीतैः कर्णसुखावहै । ध्वनद्भिर्वाद्यसंघातैः सह सा राश्यजागरीत् ॥८६॥ ततः स्वमविलोकोत्थानन्दनिर्मरमानसा । उत्थाय शयनादेवी चक्रे नित्यक्रिया पराम् ॥८॥
कि तुम जगत्में सारभूत सब कल्याणोंको पाओगी ॥७०-७२॥ प्रभातकालमें समता-सहित चित्तवाले कितने ही श्रावक सामायिकको करते हैं, जो कि कर्मरूपी वनको जलानेके लिए अग्निके समान है ।।७३।। कितने ही मनुष्य शय्यासे उठकर सर्व-विघ्न-विनाशक, लक्ष्मी और सुखके भण्डार पंचपरमेष्ठियोंके नमस्कार-मन्त्रका जाप करते हैं।७४।। कितने ही तत्त्वोंके ज्ञाता महाबुद्धिमान् लोग मनको रोककर कर्मका नाशक और सुखका सागर धर्मध्यान करते हैं ॥७५|| कितने ही धीर पुरुष मुक्ति प्राप्तिके लिए शरीरका त्याग कर कर्म-नाशक एवं स्वर्ग-मोक्ष सुखका साधक कायोत्सर्ग करते हैं ॥७६।। इत्यादि शुभ कार्योके द्वारा चतुर लोग अब इस प्रभातकालमें अपने हितके लिए धर्मध्यानके साथ प्रवृत्त हो रहे हैं ।।७७|| जिस प्रकार जिन देवरूपी सूर्यके उदय होनेपर कुमतिरूपी खद्योत प्रभा-हीन हो जाते हैं, उसी प्रकार इस समय सूर्यके उदय होनेपर ये चन्द्रमा और तारागण प्रभा-हीन हो रहे हैं ॥७८॥ जिस प्रकार अर्हन्तरूपी भानुके उदय होनेपर कुलिंगीरूपी चोरोंका समूह नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इस समय सूर्यके उदय होनेपर चोर भयभीत होकर विनष्ट हो रहे हैं ।।७२।। जिस प्रकार जिनेन्द्ररूपी सूर्य अपनी दिव्यध्वनि रूपी किरणोंसे अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करता है, उसी प्रकार यह सूर्य भी अपनी किरणोंके द्वारा रात्रिके अन्धकारका नाश कर रहा है ।।८०॥ जिस प्रकार तीर्थकर भगवान् अपने शुद्ध वचन-किरणोंके द्वारा सन्मार्ग और जीवादि पदाथोंको प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार यह सूर्य भी अपनी किरणोंसे सांसारिक पदार्थोंको प्रकाशित कर रहा है ।।८१।। जिस प्रकार अर्हन्तदेवके वचन-किरणोंके समूहसे भव्य जीवोंके हृदय-कमल विकसित हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्यकी किरणोंसे ये कमल भी विकसित हो रहे हैं ।।८२. जिस प्रकार अर्हन्तदेवके दिव्य वचन-किरणोंसे पापियोंके हृदय-कुमुद म्लान हो जाते हैं, उसी प्रकार सूर्यकी किरण-समूहसे कुमुद म्लान हो रहे हैं ।।८३॥ हे देवि, अब यह सर्व सुख-कारक प्रातःकाल हो रहा है, जो कि सर्व अभ्युदय के साधक धर्मध्यानके योग्य है ॥८४॥ अतः हे पुण्यशालिनि, शीघ्र शय्याको छोड़कर सामायिक, जिनस्तव आदिके द्वारा पुण्य कार्य करो और शत कल्याणभागिनी होवो ॥८५|| इस प्रकार उन बन्दीजनोंके सारभूत, कानोंको सुखदायी, मंगल गीतोंके द्वारा बजते हुए बाजोंके साथ वह रानी जाग गयी ।।८।। तब स्वप्नोंके
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