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७.२८]
सप्तमोऽधिकारः जयनन्दस्तवाद्यैश्च गीतवाद्यसुनर्तनः । मणिबिम्बव्रजैर्दिव्यैह मोपकरणैर्वरैः ॥१४॥ तेष्वर्गायै नृयुग्मानि यातायातानि चान्वहम् । दिव्यरूपाणि शोभन्तेऽमरयुग्मानि वा गुणः ॥१५॥ यत्रत्या दानिनो नित्यं पात्रदानाय धीधनाः । प्रपश्यन्ति गृहद्वारं मुहुर्भक्तिभराङ्किताः ॥१६॥ केचित्सुपात्रदानेन लभन्ते च सुरार्चनाम् । तद्रत्नवृष्टिमालोक्य परे स्युर्दानतत्पराः ॥१७॥ यत्पुरं राजते तुङ्गसौधायध्वजपाणिभिः । आह्वयतीव नाकेशानुच्चैस्तरपदाप्तये ॥१८॥ दातारो धार्मिकाः शूरा व्रतशीलगुणालयाः। जिनेन्द्रसद्गुरूणां च भक्तिसेवार्चनापराः ॥१९॥ नीतिमार्गरता दक्षा इहामुत्र हितोद्यताः । धर्मशीलाः सदाचारा धनिनः सुखिनो बुधाः ॥२०॥ दिव्यरूपा नरा नार्यस्तत्समान गुणाङ्किताः । वसन्ति तुङ्गसौधेषु यत्र देवा इवोर्जिताः ॥२१॥ पतिस्तस्य महीपालः श्रीमान् सिद्धार्थसंज्ञकः । आसीत् काश्यपगोत्रस्थो हरिवंशनभोऽशुमान् ॥२२॥ ज्ञानत्रयधरो धीमान् नीतिमार्गप्रवर्तकः । जिनभक्तो महादाता दिव्यलक्षणलक्षितः ॥२३॥ धर्मकर्माग्रणीधीरः सददष्टिवत्सलः सताम् । कलाविज्ञानचातुर्यविवेकादिगुणाश्रयः ॥२४॥ व्रतशील शुभध्यानमावनादिपरायणः । ख-भूचरसुराधीशैः सेविताहिनूपाग्रणीः ॥२५॥ दीप्तिकान्तिप्रतापायैर्दिव्यरूपांशुकैः परैः । नेपथ्यैः सकलैः सारैर्धर्ममूलप्रवर्तनैः ॥२६॥ नरेन्द्रः सोऽतिपुण्यात्मा बभौ विश्वमहीभुजाम् । मध्ये यथामराणां च सुरराजोऽतिपुण्यधीः ॥२७॥ तस्याभवन् महादेवी सन्नाम्ना प्रियकारिणी। अनौपम्यैर्गुणवातैर्जगतां पुण्यकारिणी ॥२८॥
द्वारा सेव्यमान हैं अतः वे अद्भुत धर्मके समुद्रके समान प्रतीत होते हैं ॥१३॥ वे जिनालय जय, नन्द आदि शब्दोंसे, स्तवन आदिसे, गीत, वाद्य, नृत्यादिसे, दिव्य मणिमयी जिनबिम्बोंसे और उत्तम दिव्य, हेम-रचित उपकरणोंसे युक्त हैं और उनमें मनुष्य-युगल (बीपुरुषोंके जोड़े ) पूजनके लिए सदा आते-जाते रहते हैं, जो अपने गुणोंके द्वारा दिव्य रूपवाले देव-युगलके समान शोभित होते हैं ।।१४-१५।। जहाँके बुद्धिमान् दानी पुरुष भक्ति-भारसे युक्त होकर पात्रदानके लिए नित्य अपने घरका द्वार बार-बार देखते रहते हैं ।।१६।। कितने ही पुरुष सुपात्रदानसे देवों द्वारा पूजाको प्राप्त होते हैं और उनके द्वारा की गयी रत्नवृष्टिको देखकर कितने ही दूसरे लोग दान देनेके लिए तत्पर होते हैं ॥१७॥ जो नगर ऊँचे प्रासादोंके अग्रभागपर लगी हुई ध्वजारूपी हाथोंसे उच्चतर पदकी प्राप्ति के लिए देवेन्द्रोंको बुलाता हुआ-सां शोभता है ।।१८।। उस नगरके ऊँचे भवनोंमें दातार, धार्मिक, शूरवीर, व्रत-शील-गुणोंके धारक, जिनेन्द्र देव और सद्-गुरुओंकी भक्ति, सेवा और पूजामें तत्पर, नीति-मार्ग-निरत, चतुर, इस लोक और पर लोकके हित-साधने में उद्यत, धर्मात्मा, सदाचारी, धनी, सुखी, ज्ञानी, और दिव्यरूपवाले मनुष्य तथा उनके समान गुणवाली स्त्रियाँ रहती हैं, वे स्त्री-पुरुष देव-देवियोंके समान पुण्यशाली प्रतीत होते हैं ॥१९-२२॥
उस कुण्डपुरके स्वामी श्रीमान् सिद्धार्थ नामवाले महीपाल थे, जो काश्यपगोत्री, हरिवंशरूप गगनके सूर्य, तीन ज्ञानके धारक, बुद्धिमान, नीतिमार्गके प्रवर्तक, जिनभक्त, महादानी, दिव्य लक्षणोंसे संयुक्त, धर्मकायोंमें अग्रणी, धीर वीर, सम्यग्दृष्टि, सज्जनवत्सल, कला विज्ञान चातुर्य विवेक आदि गुणोंके आश्रय, व्रत शील शुभध्यान भावनादिमें परायण, राजाओंमें प्रमुख थे और जिनके चरण विद्याधर, भूमिगोचरी और देवेन्द्रोंके द्वारा सेवित थे ॥२३-२५।। वे पुण्यात्मा सिद्धार्थ नरेन्द्र दीप्ति, कान्ति, प्रताप आदिसे, दिव्यरूप वस्त्रोंसे, उत्कृष्ट वेष-भूषासे और सारभूत धर्ममूलक सर्वप्रवृत्तियोंसे समस्त राजाओंके मध्यमें इस प्रकार शोभायमान थे, जैसे कि अतिपुण्य बुद्धिवाला देवेन्द्र देवोंके मध्यमें शोभा पाता है ॥२६-२७। उस सिद्धार्थ नरेश की रानी 'प्रियकारिणी' इस उत्तम नामवाली महादेवी थी। जो अपने अनुपम गुण-समूहसे जगत्की पुण्यकारिणी थी ॥२८॥
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