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सप्तमोऽधिकारः
कृत्स्नविघ्नौघहन्तारं त्रिजन्नाथ सेवितम् । वन्दे श्रीपार्श्वतीर्थेशं पञ्चकल्याणनायकम् ॥१॥ अथेह भारते क्षेत्रे विदेहाभिध ऊर्जितः । देशः सद्धर्मसंघाद्यैर्विदेह इव राजते ॥२॥ तत्रत्या मुनयः केचिद् विदेहाः संभवन्त्यहो । वृत्तात्तस्मात्स देशोऽत्र विधत्ते नाम सार्थकम् ॥३॥ केचित्तीर्थे सत्कर्म बनान्ति भावनादिभिः । यान्ति पञ्चोत्तरं केचिच्चाहमिन्द्रालयं दिवम् ॥४॥ केचिद् भक्त्या प्रदायोच्चैः दानं पात्राय तत्फलात् । यान्ति भोगधरां चान्ये शक्रास्थानं जिनार्चया ||५|| निर्वाणभूमयो यत्र विलोक्यन्ते पदे पदे । नृदेवखचरैर्वन्द्या अर्हत्केवलियोगिनाम् || ६ || यत्रारण्याचलादीनि भान्ति ध्यानस्थयोगिभिः । तुङ्गश्रीजिनधामौघैः पुरादीनि च संततम् ||७|| यत्र ग्रामपुरीखेटमटवाद्या वनानि च । तुङ्गैर्जिनालयैः सद्भिः शोभन्तेऽयाकरा इव ॥८॥ विहरन्ति यतीशौघा यत्र धर्मप्रवृत्तये । चतुर्विधैरमा संधैर्गणेशाः केवलेक्षणाः ॥ ९ ॥ इत्यादि वर्णनोपेतदेशस्याभ्यन्तरे पुरम् । कुण्डामिधं विराजेत नामिवद्धार्मिकैर्महत् ॥ १० ॥ यत्तुङ्गगोपुरैः शालखातिकाभ्यां सुरक्षकैः । अलङ्घ्यं शत्रुभिश्चाभात् साकेतपुरवत्तराम् ॥११॥ यत्र केवलितीर्थेशां कल्याणायागतैः सुरैः । तेषां यात्रादिभिश्वको वर्तते परमोत्सवः ॥ १२ ॥ यत्रोन्नता जिनागारा हेमरत्नमयाः शुभाः । विभ्राजन्ते बुधैः सेव्या इव धर्मावधयोऽद्भुताः ॥१३॥
समस्त विघ्न समूह के विनाशक, तीन जगत्के स्वामियोंसे सेवित और पंचकल्याणकोंके नायक श्री पार्श्वनाथ तीर्थेशकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ १ ॥
अथानन्तर इसी भारतवर्ष में विदेह नामक एक विशाल देश है, जो श्रेष्ठ धर्म और मुनीश्वरोंके संघ आदिसे विदेहक्षेत्रके समान शोभायमान है ||२|| अहो, वहाँके कितने ही मुनिराज शुद्ध चारित्रसे देह-रहित (मुक्त) होते हैं, इस कारणसे वह देश 'विदेह' इस सार्थक नामको धारण करता है ||३|| वहाँके कितने मनुष्य दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओंके द्वारा उत्तम तीर्थंकर नामकर्मको बाँधते हैं और कितने ही पंच अनुत्तर विमानों में जाकर अहमिन्द्रपद प्राप्त करते हैं ||४|| कितने ही भव्य जीव उच्च भक्तिके साथ पात्र के लिए दान देकर भोगभूमिको जाते हैं और कितने ही जिन-पूजनके प्रभावसे इन्द्रोंका स्थान प्राप्त करते हैं ॥५॥ जिस देशमें तीर्थंकर और सामान्यकेवलियोंकी देव, मनुष्य, विद्याधरोंसे वन्द्य निर्वाणभूमियाँ पद-पद पर दृष्टिगोचर होती हैं ॥ ६ ॥ जहाँके वन और पर्वतादिक ध्यान-स्थित योगियोंके द्वारा शोभित हैं और जहाँके नगर-प्रामादिक उत्तुंग जिनमन्दिरोंसे निरन्तर शोभा पा रहे हैं ||७|| जहाँ पर ग्राम, पुर, खेट, मटम्ब आदि और वन- प्रदेश उन्नत और उत्तम जिनालयों से पुण्यकी खानिके समान शोभित हैं ||८|| जहाँ पर धर्मकी प्रवृत्तिके लिए केवलज्ञानी भगवन्त, गणधर और मुनिराजोंके समूह चारों प्रकारके संघोंके साथ विहार करते रहते हैं || ९ || इत्यादि वर्णन - से संयुक्त उस देश के भीतर नाभिके समान मध्यभाग में कुण्डपुर नामक महान् नगर विराजमान है ॥१०॥ जो सुरक्षक उत्तुंग गोपुरोंसे, कोट और खाईसे शत्रुओं द्वारा अलंघ्य है, अतः साकेतपुर (अयोध्यानगर ) के समान अयोध्या है || ११|| जहाँ पर केवली और तीर्थंकरोंके कल्याणकोंके लिए, तथा तीर्थयात्रादिके लिए समागत देवों द्वारा सदा परम उत्सव होता रहता है ||१२|| जहाँपर उन्नत सुवर्ण-रत्नमयी उत्तम जिनालय शोभायमान है, जो ज्ञानी जनों के
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