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पञ्चमोऽधिकारः
कारातिविजेतारं वीरं वीरगणाग्रिमम् । वन्दे रुद्रकृतानेकपरीपहभरक्षमम् ॥१॥ अथान्येद्यः स कालाप्त्या हरिषेणमहीपतिः । मिथो वितर्कयेदेवं विवेकानवलमानसे ॥२॥ किंलक्षणोऽहमेवात्मा कीदृशा वपुरादयः । अमी कीदृग्विधं चैतत्कुटुम्बं बन्धकारणम् ।।३।। कुतो मे शाश्वतं शर्म कथमाशा विनश्यति । किं हितं चाहितं लोके किं कृत्यं किं किलेतरम् ॥४॥ अहो दृग्ज्ञानवृत्तादिगुणरूपोऽहमात्मवान् । एतेऽत्राचेतनाः पूतिगन्धयोऽङ्गादिपुद्गलाः ॥५॥ यथात्र मिलितं पक्षिवर्ग तुङ्गे तरौ निशि । कुले तथा कुटुम्बं च स्वस्वकार्यपरायणम् ॥६॥ निर्वाणान्नापरं किंचिच्छ श्वतं शर्म दृश्यते । विना संगपरित्यागाजावाशा न प्रणश्यति ॥७॥ तपो रत्नत्रयेभ्योऽन्यद्धितं जातु न विद्यते । मोहाक्षविषयेभ्योऽन्यन्नाहितं चाशुभाकरम् ॥८॥ अतो वैषयिक सौख्यं विषवद्धेयमासा । तपो रत्नत्रयं सारमादेयं हितकांक्षिणा ॥९॥ तत्कृत्यं धीमतां येन हीहामुत्र सुखं यशः । तदकृत्यं तरां येन निन्दा दुःखं पराभवम् ॥१०॥ इत्यादिचिन्तनादाप्य संवेगं कर्मनाशकृत् । जगद्धोगशरीरादौ हितायाधात्स उद्यमम् ॥११॥ ततो निक्षिप्य राज्यस्य दुर्भारं लोष्टवत्तजि । आदातुं स तपोभारं सुगमं निर्ययौ गृहात् ॥१२॥
कर्म शत्रुओंके विजेता, वीर पुरुषों में अग्रणी और रुद्रकृत अनेक उपसर्गों एवं परीषहोंके सहन करने में समर्थ श्री वीर जिनेन्द्रकी मैं वन्दना करता हूँ ॥१॥
. अथानन्तर किसी समय वह हरिषेण राजा काललब्धिकी प्राप्तिसे अपने विवेकसे निर्मल चित्तमें इस प्रकार विचारने लगा कि मेरा यह आत्मा किस स्वरूपवाला है और ये शरीर आदि किस प्रकार के स्वरूपवाले हैं ? बन्धका कारण यह कुटुम्ब किस प्रकारका है ? नित्य सुखकी प्राप्ति मुझे कैसे होगी और कैसे मेरी यह आशा विनष्ट होगी ? लोकमें मेरा हित
और अहित क्या है ? यहाँ मेरा क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है ॥२-४।। अहो, मैं दर्शन ज्ञान चारित्ररूप आत्मावाला हूँ और ये शरीरादिके पुद्गल अपवित्र, दुर्गन्धि और अचेतन हैं ॥५।। जैसे यहाँ पर रात्रिके समय ऊँचे वृक्षपर पक्षियोंका समूह मिल जाता है उसी प्रकार मनुष्यकुलमें भी ये स्त्री-पुत्रादिका कुटुम्ब मिल रहा है, किन्तु सब अपने-अपने कार्यमें परायण हैं ॥६॥
___ यहाँ पर मोक्षके सिवाय और कहींपर भी नित्य सुख नहीं दिखता है और परिग्रहके त्यागके बिना कभी भी यह आशा-तृष्णा नहीं नष्ट हो सकती है ॥७॥ यहाँपर तप और रत्नत्रयके सिवाय अन्य कोई वस्तु हित करनेवाली नहीं है। तथा मोह और इन्द्रिय विषयोंके सिवाय अन्य कोई अहित और अशुभ करनेवाला नहीं है ।।८। यह इन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न हुआ सुख विषके समान निश्चयसे हेय है। अतः हितके चाहनेवाले पुरुषको सारभूत तप और रत्नत्रय ग्रहण करना चाहिए ।।९।। बुद्धिमानोंको वही कार्य करना योग्य है, जिससे इस लोक और परलोकमें सुख और यश हो । और वही कार्य अकृत्य है जिससे निन्दा, दुःख
और पराभव हो ॥१०॥ इस प्रकारके चिन्तवनसे संसार, शरीर और भोग आदिमें कर्मोंका नाश करनेवाले संवेगको प्राप्त कर उसने अपने हितके लिए उद्यम किया ॥११।। तदनन्तर लोष्ठके समान राज्यके दुर्भारको पुत्रपर डालकर और सुगम तपोभारको ग्रहण करने के लिए
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