________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
६.७०]
षष्ठोऽधिकारः तपोभिर्दुष्करैरेतैः प्रादुरासन् महर्द्धयः । एतस्यानेकशी दिव्या ज्ञानाद्याः सुखखानयः ॥५७॥ सर्वसत्त्वेषु मैत्री स विधत्ते धर्ममातृकाम् । धर्माकरं प्रमोदं च मुनीन्द्रगुणशालिषु ॥५४॥ वृत्तमूलां कृपां कुर्याद् रोगक्लेशाढ्यदेहिषु । मिथ्यादृग्विपरीतेषु माध्यस्थ्यं च सुखार्णवम् ॥५९॥ तल्लीनहृदयस्यास्य चतुर्पु भावनास्वपि । रागद्वेषौ स्थितिं कर्तुं स्वप्नेऽपि न क्षमौ क्वचित् ॥६०॥ त्रिशुद्धया भावयन्नित्यं षोडशेमाः सुभावनाः । तद्गुणार्पितचित्तोऽसौ तीर्थनाथविभूतिदाः ॥६॥ आदौ दृष्टिविशुद्धयर्थं निःशङ्कादीन् गुणान् परान् । स्वीचक्रेऽष्टौ मलान् हत्वा सद्-दृष्टेः पञ्चविंशतिम् ॥६२॥ सूक्ष्मतत्वविचारेषु जिनोक्तधर्मयोगिषु । प्रामाण्यपुरुषाच्छङ्कां त्यक्त्वा निःशङ्कितां व्यधात् ॥६३॥ तपसेह परत्रापि स्वर्भोगश्रीसुखादिषु । श्वभ्रदेषु निहत्याकाङ्क्षा स निःकासितां दधे ॥६॥ मलजल्लाक्तदेहेषु गुणशालिषु योगिषु । विचिकित्सां विधोज्झित्वा सोऽधानिर्विचिकित्सताम् ॥६५॥ देवचिद्गुरुधर्मादीन् परीक्ष्य ज्ञानचक्षुषा । मूढत्वं त्रिविधं मुक्त्वामूढत्वगुणमाददौ ॥६६॥ बालाशक्तजनैनिर्दोषजैनशासनस्य सः । आगतं दोषमाच्छाद्योपगृहनगुणं मजेत् ॥६॥ चलतो दृक्तपोवृत्ताद्यङ्गीकृतेभ्य एव सः । तद्गुणेषु स्थिरीकृत्य स्थितीकरणमाचरेत् ॥६॥ निःस्नेहोऽपि स्वकायादौ सद्यःप्रसूतधेनुवत् । सधर्मणि महास्नेहं कृत्वा वात्सल्यमाभजेत् ।।६९॥
मिथ्यातमोऽत्र निधूय तपोज्ञानांशुभिर्मुनिः । प्रकाश्य शासनं जैनं कुर्याद् धर्मप्रभावनाम् ॥७॥ इन दुष्कर तपोंसे उन मुनिराजके सुखकी खानिरूप अनेक प्रकारकी दिव्य शारीरिक महाऋद्धियाँ प्रकट हो गयीं और बीज, बुद्धि आदि अनेक ज्ञानऋद्धियाँ भी उन्हें प्राप्त हुई ॥५७॥ वे मुनिराज सर्व प्राणियों पर धर्मकी मातृस्वरूप मैत्री भावना, गुणशाली मुनीन्द्रोंके ऊपर धर्माकर प्रमोद भाव, रोग-क्लेश-युक्त प्राणियों पर धर्मका मूल कृपाभाव और मिथ्या दृष्टि एवं विपरीत बुद्धिवालोंपर सुखका सागर माध्यस्थ्य भाव रखते थे ।।५८-५९|| इन चारों भावनाओंमें तल्लीन हृदयवाले उन मुनिराजके स्वप्नमें भी राग-द्वेष भाव स्थिति करने के लिए कभी समर्थ नहीं हुए ॥६०॥
. वे मुनिराज तीर्थकरकी विभूतिको देनेवाली इन वक्ष्यमाण सोलह उत्तम भावनाओंकी तीर्थंकरोंके गुणोंमें समर्पित चित्त होकर निरन्तर मन वचन कायकी शुद्धिसे भावना करने लगे ॥६१। उनमें सबसे पहले सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके लिए उसके पचीस दोषोंको दूर कर निश्शंकित आदि आठ महान गुणोंको उन्होंने स्वीकार किया ॥६२।। उन्होंने जिन-भाषित धर्मके करनेवाले सूक्ष्म तत्त्वोंके विचारनेमें 'प्रामाणिक पुरुषके वचन अन्यथा नहीं हो सकते' ऐसा निश्चय करके सर्व प्रकारकी शंकाको छोड़कर निश्शंकित गुणको धारण किया ॥६३।। उन्होंने तपके द्वारा इस लोकमें तथा परलोकमें स्वर्गोंके भोग, लक्ष्मी, सुख आदिमें जो कि अन्तमें नरक-निवासके दाता हैं, आकांक्षाका त्याग कर निःकांक्षित अंगको धारण किया ॥६४|| मल और शारीरिक मैल आदिसे जिनका शरीर व्याप्त है ऐसे गुणशाली योगियोंमें मन वचन कायसे ग्लानिका त्याग करके निर्विचिकित्सा अंगको धारण किया॥६५॥ उन मुनिराजने देव, शास्त्र, गुरु और धर्म आदिकी ज्ञाननेत्रसे परीक्षा कर तीनों प्रकारकी मूढ़ताओंका त्याग कर अमूढत्व गुणको स्वीकार किया ॥६६॥ निर्दोष जैन शासनमें अज्ञानी और असमर्थ पुरुषोंके द्वारा प्राप्त हुए दोषोंको आच्छादन करके उपगूहन गुणका पालन किया ॥६७॥ सम्यग्दर्शन, तप, चारित्र आदिको अंगीकार करके उससे चलायमान हुए जीवोंको उपदेश आदिके द्वारा उन्हीं गुणोंमें पुनः स्थिर करके स्थितीकरण अंगका आचरण किया ॥६८।। अपने शरीर आदिमें वे मुनिराज स्नेह-रहित थे, फिर भी सद्यःप्रसूता गौ जैसे अपने बछड़ेपर अत्यन्त स्नेह करती है, उसी प्रकार उन्होंने साधर्मी जनोंमें अति स्नेह करके वात्सल्यगुणका पालन किया ॥६९।। उन मुनिराजने इस संसारमें फैले हुए मिथ्यात्वरूप अन्धकारको अपने तप और ज्ञानकी
For Private And Personal Use Only