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६. ९९ ]
षष्ठोऽधिकारः
योगिभ्यो ज्ञानदानं सत्त्वेभ्यः सोऽभयं सदा । दद्याद्धर्मोपदेशं च सर्वजीव सुखावहम् ॥ ८४॥ हन्तृदुष्कर्मखारीणां द्विषड्भेदं तपोऽनघम् । प्रागुक्तवर्णनोपेतं स्वशक्त्या सोऽन्वहं चरेत् ||८५ ॥ रुजादिभिः स साधूनामसमाधिवतां सदा । शुश्रूषयोपदेशाद्यैः समाधिं वृत्तदं मजेत् ॥८६॥ आचार्योऽध्यापकः शिष्यस्तपस्वी ग्लान एव हि । गणो गुरुकुलः संघः साधुर्मनोज्ञ इत्यमी ॥ ८७ ॥ वैयावृत्त्येऽत्र योग्याः स्युर्दश तेषां महात्मनाम् । स्वान्ययोर्गुणदं कुर्याद् वैयावृत्यं स मुक्तये ॥ ८८ ॥ मनोवचनकायाद्यैरर्हतां भक्तिमूर्जिताम् । धर्मार्थकाममोक्षाणां .... (?) सर्वदाश्रयत् ॥ ८९ ॥ आचार्याणां गणार्थ्यानां पञ्चाचारपरायिणाम् । षट्त्रिंशद्गुणभ्रातॄणां धत्ते मक्तिं त्रिरत्तदाम् ||१०|| बहुश्रुतवत्तां विश्वोद्योतकानां मुनीशिनाम् । अज्ञानध्वान्तहन्तॄणां भक्ति ज्ञानखनिं श्रयेत् ॥९१॥ एकान्तान्धत मोहन्तुर्जेन प्रवचनस्य सः । समस्ततत्त्वपूर्णस्य दध्याद् भक्तिं श्रुताम्बिकाम् ॥ ९२ ॥ समता स्तुतिरेवानुवन्दना हि त्रिकालजा । सत्प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं व्युत्सर्ग एव हि ॥९३॥ इमान्यावश्यकान्येष सिद्धान्तबीजजान्यपि । नियमेनाघहन्तृणि काले काले करोति नै ||९४ || चिद्विज्ञानतपोयोगैरुत्कृष्टाचरणैः सदा । विधत्तेऽङ्गिहितां सारां जैनमार्गप्रभावनाम् ||१५|| सम्यग्ज्ञानवतां पुंसां कृत्वा सन्मानमञ्जसा । कुर्यात् प्रवचनस्यासौ वात्सल्यं विश्वधर्मदम् ॥ ९६ ॥ अमूंस्तीर्थेश सद्भूतिकरान् षोडशकारणान् । शुद्धर्मनो वचः कायैर्भावयित्वा स प्रत्यहम् ॥९७॥ तत्फलेन बबन्धाशु तीर्थ कृन्नामकर्म हि । अनन्तमहिमोपेतं त्रिजगत्क्षोभकारणम् ॥१८॥ प्रकम्पन्ते सुरेशां विष्टराणि यत्प्रभावतः । मुक्तिश्रीः स्वयमागत्य दत्ते चालिङ्गनं सताम् ॥९९॥
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वे योगियोंके लिए ज्ञानदान, प्राणियोंके लिए अभयदान सबके लिए सुखकारक धर्मका उपदेश सदा देते थे ||८४॥ जिनका पहले वर्णन किया गया है, जो दुष्कर्म और इन्द्रियरूप शत्रुओंका नाशक है ऐसे बारह प्रकारके निर्दोष तपोंको अपनी शक्तिके अनुसार सदा आचरण करते थे ||८५|| वे रोग आदिके द्वारा असमाधिको प्राप्त साधुओंकी सेवा-शुश्रूषा और उपदेश आदिसे चारित्रकी रक्षक साधु समाधिको सदा करते थे || ८६|| वे आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, तपस्वी, ग्लान ( रोगी ) गण, गुरुकुल, संघ और मनोज्ञ इन दश प्रकारके महात्मा पुरुषोंकी मुक्तिप्राप्ति के लिए स्वपर - गुणकारक यथायोग्य वैयावृत्त्य करते थे ||८७-८८ ॥ वे मुनिराज धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके देनेवाले अर्हन्तोंकी मन, वचन, कायके द्वारा सदा उत्कृष्ट भक्ति करते थे ॥ ८९ ॥
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गण द्वारा पूज्य, पंचाचार-परायण और छत्तीस गुण-धारक आचार्योंकी रत्नत्रय - दानी भक्तिको वे सदा करते थे ||१०|| अज्ञानान्धकारके नाशक, विश्व के प्रकाशक ऐसे बहुश्रुतवन्त मुनिराजोंकी ज्ञानकी खानिरूप भक्ति करते थे ||२१|| वे एकान्त अन्धतमके नाशक, समस्त तत्त्वसे परिपूर्ण, जैन प्रवचनकी और जिनवाणी माताकी परम भक्ति करते थे ||१२|| वे मुनिराज समता स्तुति त्रिकाल वन्दना सत्प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग ये छह आवश्यक जो कि सिद्धान्त के बीजभूत हैं, और नियमसे पापके नाशक हैं, उन्हें यथाकाल—यथासमय नियमसे करते थे । ९३-९४ || वे चिद् अचित्के भेदविज्ञानसे, तपोयोगसे और उत्कृष्ट आचरणोंसे सदा जीवोंका हित करनेवाली सारभूत जैनमार्ग की प्रभावना करते थे ||९५॥ वे सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंका नियमसे सम्मान करके पूर्णधर्मको देनेवाले प्रवचनका वात्सल्य करते थे ||९६ || इस प्रकार तीर्थंकरकी सद्-विभूतिको देनेवाली इन सोलह कारण भावनाओंकी शुद्ध मन वचन कायसे प्रतिदिन भावना करके उसके फल द्वारा तीर्थंकर नामकर्मका शीघ्र बन्ध किया । यह तीर्थंकर नामकर्म अनन्त महिमासे संयुक्त है और तीन लोकमें क्षोभका कारण है || ९७-९८ || जिस तीर्थंकर प्रकृतिमें प्रभावसे इन्द्रोंके सिंहासन प्रकम्पित होते हैं और मुक्ति लक्ष्मी स्वयं आकरके सन्तोंका आलिंगन करती है ||१९||
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