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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[६.१००
ततोऽसौ मृत्युपर्यन्तं प्रपाल्यानघसंयमम् । विदित्वा निजमल्पायुस्त्यक्त्वाहारवपुःक्रियाम् ॥१०॥ त्रिजगच्छर्मकर्तारं व्रतसाफल्यकारकम् । संन्यासं परया शुद्धयाददे मोक्षसमाधये ॥१०१॥ ततो दृरज्ञानचारित्रतपसां शुद्धिकारिणाम् । भाराभ्याराधना यत्नान्मुक्तिस्व्यम्बा चतुर्विधा ॥२॥ निर्विकल्पं मनः कृत्वा स्थापयित्वा चिदात्मनि । समाधिनात्यजद् धीमान् प्राणान् विश्वाङ्गिरक्षकान् ॥१०३॥ ततस्तद्योगपाकेन सोऽच्युतेन्द्रोऽभवद्यतिः । दिवि षोडशमेऽनेकभूतिवाधौं सुरार्चितः ॥१०॥ तत्र सोऽन्तर्मुहूर्तेन संप्राप्य वारूर्जितम् । भूषितं सहजैर्दिव्यैः सम्भूषाम्बरयौवनैः ॥१०५।। रनोपादशिलान्तःस्थमृदुपल्यतो मुदा । उत्थाय वीक्ष्य तत्सवं रामणीयकमद्भुतम् ॥१०६॥ नाकर्द्धिस्त्रीविमानादि-साश्चर्यहृदयः शनैः । सुप्तोस्थित इवेन्द्रः स्वमनसीत्थमचिन्तयत् ॥१०॥ भहो कोऽहं सुपुण्यात्मा कोऽयं देशः सुखाकरः । केऽत्रामी वत्सला दक्षा अमरा विनयाक्तिताः ॥१०८॥ का इमा ललिता देव्यो दिव्यश्रीरूपखानयः । केषामेते वियद्रत्नमयाः प्रासादपङ्क्तयः॥१०९॥ कस्येदं सप्तधानीकं मनोज्ञं सुररक्षितम् । कस्यायं परमस्तुङ्गसमामण्डप अर्जितः ॥११०॥ दिव्यरत्नमयं तुझं कस्यैतद्धरिविष्टरम् । इमा अन्या निरौपम्या बढ्याः कस्य विभूतयः ।।१११॥ केन वा कारणेनायं जनः सर्वोऽतिसुन्दरः । विनीतो वीक्ष्य मामत्र सानन्दो वर्तते तराम् ॥११२॥ अथवाऽहमिहानीतः केना तायकर्मणा । पुरार्जितेन देशेऽस्मिन् विश्वर्द्धिकुलमन्दिरे ॥११३॥ इत्यादि-चिन्तमानस्य तदा तस्यामरेशिनः । नायाति निश्चयं यावद् हृदि संदेहनाशकृत् ।।११४॥ तावत्तत्सचिवा दक्षा अवधिज्ञानचक्षुषा । तदाकूतं परिज्ञायाभ्येत्य नत्वाशु तत्क्रमौ ॥११५|| स्वहस्तौ कुड्मलीकृत्य मूर्भा दिव्यगिरा मुदा । तत्संदेहविनाशाय तं प्रतीत्यवदन् विदः ॥११६॥
इस प्रकार मरण-पर्यन्त निर्दोष संयमका पालन कर और अपनी अल्पायुको जानकर उन्होंने आहार और शारीरिक क्रियाओंको छोड़कर त्रिजगत्के सुख देनेवाले और व्रतोंको सफल करनेवाले संन्यासको उन्होंने मोक्ष और समाधिकी प्राप्तिके लिए परम विशुद्धिके साथ धारण कर लिया ॥१००-१०१।। तत्पश्चात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपकी शुद्धि करनेवाली मुक्तिरमाकी मातृस्वरूपा चारों आराधनाओंका परम यत्नसे आराधन कर, मनको विकल्पोंसे रहित कर, तथा शुद्ध आत्मामें अपनेको स्थापित कर उन बुद्धिमान नन्दमुनिराजने समस्त प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले अपने प्राणोंको समाधिपूर्वक छोड़ा ॥१०२-१०३।।
तत्पश्चात् वे मुनिराज उस समाधि-योगके फलसे अनेक प्रकारकी विभूतिके समुद्र ऐसे सोलहवें अच्युतकल्पमें देवोंसे पूजित अच्युतेन्द्र उत्पन्न हुए ॥१०४॥ वहाँपर यह अच्युतेन्द्र अन्तर्मुहूर्त में सहज उत्पन्न हुए दिव्य माल्य, आभूषण, वस्त्र और यौवनावस्थासे भषित उत्तम शरीरको पाकर, रत्नमयी उपपाद शिलाके अन्तःस्थित कोमलशय्यासे उठकर तथा वहाँकी सभी रमणीय अद्धत वस्तुओंको देखकर स्वर्गकी ऋद्धि, देवियाँ और विमान आदिके देखनेसे हृदयमें आश्चर्यमुक्त होकर धीरेसे सोकर उठते हुए राजकुमारके सदृश वह इन्द्र अपने मनमें इस प्रकार चिन्तवन करने लगा ॥१०५-१०७॥ अहो, मैं पुण्यात्मा कौन हूँ, सुखोंका भण्डार यह कौन देश है, ये वत्सल, दक्ष, विनयसे परिपूर्ण देव कौन है ? दिव्य लक्ष्मी और रूपकी खानि ये सुन्दर देवियाँ कौन हैं ? ये आकाशमें अधर रहनेवाली रत्नमय भवनोंकी पंक्तियाँ किनकी हैं ? यह देव-रक्षित, मनोज्ञ सात प्रकारकी यह सेना किसकी है ? यह परम उन्नत देदीप्यमान सभामण्डप किसका है, यह दिव्य रत्नमय उत्तुंग सिंहासन किसका है ? ये दूसरी अनुपम नाना प्रकारकी बहुत-सी विभूतियाँ किसकी हैं ? किस कारणसे ये सभी अतिसुन्दर विनीत जन मुझे देखकर अति आनन्दित हो रहे हैं ? ॥१०८-११२।। अथवा पूर्वोपार्जित किस अद्भुत पुण्यकर्मके द्वारा मैं इस समस्त ऋद्धियोंसे परिपूर्ण मन्दिरवाले देशमें लाया गया हूँ॥११३।। इत्यादि प्रकारसे चिन्तवन करनेवाले उस देवेन्द्रके
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