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श्री वीरवर्धमानचरिते
इति शुभपरिपाका चन्दनामा नरेशो निरुपमसुखसारानाप भोगांश्च दिव्यान् । विमल चरणयोर्य ततोऽत्रेति मत्वा भजत जिनसुधर्मं शर्मकामा शिवाय ॥ १४७ ॥ धर्मैकः क्रियतां ह्यनन्तसुखदं धर्मं कुरुध्वं बुधाः धर्मेण व्रजताद्भुतं गुणगणं धर्माय मूर्ध्ना नुतिः । धर्मान्माश्रयता परं सुगतये धर्मस्य धत्ताश्रयं धर्मे तिष्ठत धर्म एव भवतां कुर्याच्छिवं चाशु मे ॥ १४८ ॥
इति भट्टारकश्री सकलकीर्त्तिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते देवादिशुभभवचतुष्टयप्ररूपको नाम पञ्चमोऽधिकारः ||५||
धर्म- बुद्धिवाला राजा धर्मके फलसे उत्पन्न हुए महाभोगोंको और राज्य - सम्पदाको भोगता हुआ दुःखोंसे रहित होकर दीर्घकाल तक सुखसे समय बिताने लगा ॥१४५-१४६॥
इस प्रकार पुण्यके परिपाकसे वह नन्दनामक राजा दिव्य, अनुपम सुखके सारभूत भोग प्राप्त हुआ। ऐसा जानकर सुखके इच्छुक भव्यजन शिव-प्राप्ति के लिए निर्मल आचरण-योगोंसे यत्न पूर्वक उत्तम जिनधर्मको सेवन करें ||१४७||
[ ५.१४७
एक मात्र धर्म करना चाहिए, हे ज्ञानी जनो, तुम लोग अनन्त सुखको देनेवाले धर्मको करो, धर्मके द्वारा ही तुम लोग अद्भुत गुण-समूहको प्राप्त होओ, धर्म के लिए मस्तक झुकाकर नमस्कार है, धर्म से अतिरिक्त अन्य किसीका आश्रय मत लो, सुगतिके लिए धर्मका आश्रय धारण करो और धर्म में सदा स्थित रहो । धर्म ही आप लोगोंका और मेरा शीघ्र कल्याण करे | हे धर्म, हम सबको शीघ्र शिवपद दो || १४८||
इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्ति-विरचित श्रीवीरवर्धमानचरितमें देवादि उत्तम चार भवोंका वर्णन करनेवाला यह पंचम अधिकार समाप्त हुआ ||५||
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