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५.१४६ ]
पञ्चमोऽधिकारः अथ जम्वाह्वये द्वीपे क्षेत्रे भरतसंज्ञके । छत्राकारपुरं रम्यमस्ति धर्मसुखाकरम् ॥१३४॥ तस्य स्वामी शुमादासीन्नन्दिवर्धनभूपतिः । राज्ञी वीरमती तस्य बभूव पुण्यशालिनी ॥१३५॥ च्युस्वा स निर्जरो नाकात्तयोः सूनुरजायत । नन्दनामा सुरूपाद्यैर्जगदानन्दकारकः ॥१३६॥ स बन्धुविहिताः पुत्रजातोत्सवादिसंपदः । योग्यैः पयोऽनभूषाद्यैर्वृद्धि प्राप्य गुणः समम् ॥१३७॥ क्रमादधीत्य शास्त्रास्त्रविद्याश्चाध्यापकाद्धिया । कलाविवेकरूपायैर्नाकीवाभाति पुण्यवान् ॥१३८॥ ततोऽसौ यौवने लब्ध्वा राज्यं पितुः श्रिया सह । दिव्यान् भोगान् हि भुञान इति धर्म मुदाचरेत् ॥१३९॥ निःशङ्कादिगुणोत्कर्षविधत्ते दृग्विशुद्धि ताम् । द्वादशवतपूर्णानि यत्नेन प्रतिपालयेत् ॥१४०॥ उपवासान्निरारम्भान् कुर्यात्स सर्वपर्वसु । दानं सन्मुनये भक्त्या ददाति विधिनान्वहम् ॥१४१॥ करोति महती पूजां जिनेशां स्वजिनालये। यात्रां व्रजेद् गणेन्द्राहद्योगिनां धर्मवृद्धये ॥१५२॥ धर्मादिष्टार्थसंप्राप्तिरर्थात् समीहितं सुखम् । सुखत्यागाद्धि निर्वाणस्तत्र शर्म क्षयातिगम् ॥४३॥ इत्येवं धर्ममूलं स विदित्वा सकलं सुखम् । इहामुत्र तदाप्त्यै सद्धर्ममेकं भजेत् सदा ॥१४४॥ स्वयं शुभशताचारैर्वचोभिः प्रेरकैः सताम् । धर्मानुमतिसंकल्पः सर्वावस्थासु धर्मधीः ॥१४५॥
तत्फलोत्थमहामोगान् भुञ्जानो राज्यसंपदः । अनयच्छर्मणा कालं महान्तं सोऽसुखातिगः ॥१४६॥ निरन्तर कहीं क्रीड़ा करते, कहीं वीणा आदि वादित्रोंसे, कहीं मनोहर गीतोंसे, कहींपर देवांगनाओंके सुन्दर श्रृंगार युक्त रूपोंको देखनेसे, कहींपर धर्म-गोष्ठियोंसे, कहींपर केवलियोंके पूजनसे और कभी तीर्थंकरोंके पंचकल्याणकोंके परम उत्सवोंसे, तथा इसी प्रकारके अन्य पुण्यकार्योको करते हुए धर्म और सुखके साथ वह देव समयको बिताता हुआ अन्य देवोंसे सेवित होकर सुख-सागरमें निमग्न रहने लगा ॥१३०-१३३॥
अथानन्तर इसी जम्बू नामक द्वीपके भरतनामक क्षेत्रमें छत्रके आकारवाला, धर्म और सुखका भण्डार एक रमणीक छत्रपुर नामका नगर है ॥१३४॥ पुण्योदयसे उसका स्वामी नन्दिवर्धन नामका राजा था। उसकी पुण्यशालिनी वीरमती नामकी रानी थी॥१३५॥ उन दोनोंके वह देव स्वर्गसे च्युत होकर नन्द नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह अपने सुन्दर रूप आदिके द्वारा जगत्को आनन्द करनेवाला था ॥१३६।। बन्धुजनोंके द्वारा किये गये पुत्रजन्मोत्सव आदिकी सम्पदाको पाकर, तथा योग्य दुग्ध, अन्न, वेष-भूषा ( आदिसे ) और गुणों के साथ वृद्धिको प्राप्त होकर, क्रमशः अपनी बुद्धिके द्वारा अध्यापकसे शास्त्र और शस्त्र विद्याओंको पढ़कर, कला, विवेक और रूप आदिके द्वारा वह पुण्यवान् नन्दकुमार देवके समान शोभित होने लगा ॥१३७-१३८॥ तत्पश्चात् यौवन-अवस्थामें लक्ष्मीके साथ पिताके राज्यको पाकर ( और अपनी स्त्रियोंके साथ ) दिव्य भोगोंको हर्षसे भोगता हुआ धर्मका आचरण करने लगा ॥१३९।। वह निःशंकित आदि गुणोंके द्वारा सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि करने लगा, यत्नके साथ निरतिचार पूरे श्रावक व्रतोंको पालने लगा ॥१४०॥ सर्वपों में आरम्भरहित होकर उपवासोंको करने लगा, भक्तिसे विधिपूर्वक प्रतिदिन उत्तम मुनियोंको दान देने लगा ॥१४१।। अपने जिनालयमें जिनेन्द्रदेवोंकी महापूजाको करने लगा और धर्मकी वृद्धिके लिए तीर्थकर, गणधर और योगियोंकी यात्राको जाने लगा ॥१४२॥
धर्मसे इष्ट अर्थकी प्राप्ति होती है, अर्थसे मनोवांछित सुख मिलता है और सुखके त्यागसे निर्वाण और वहाँका अक्षय-अनन्त सुख प्राप्त होता है, इस प्रकार सर्वसुखोंका मूल धर्मको समझकर वह नन्द राजा इस लोक और परलोकमें उसकी प्राप्तिके लिए एकमात्र धर्मको सदा सेवन करने लगा ॥१४३-१४४॥ स्वयं सैकड़ों उत्तम आचरणोंसे प्रेरक वचनोंसे और सज्जनोंके धर्म-कार्योंकी अनुमतिरूप संकल्पों से वह सर्व अवस्थाओंमें
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