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पञ्चमोऽधिकारः
aaisit धर्ममूर्तिर्वा बभौ विश्वमहीभुजाम् । मध्ये श्रीजिनदेवो वामराणां पुण्यचेष्टितैः ॥ ७३ ॥ अथैकदा नरेशोऽसौ क्षेमंकरजिनेश्वरम् । वन्दितुं परिवारेण विभूत्यामा ययौ मुदा ॥ ७४ ॥ त्रिःपरीत्य जिनेन्द्र तं नत्वा मूर्ध्ना प्रपूज्य सः । भक्त्या दिव्याचंनाद्रव्यैर्नृ कोष्ठे स उपाविशत् ॥ ७५ ॥ तद्धिताय जनाधीशोऽसौ दिव्यध्वजिनानघम् । गणान् प्रतीत्यनुप्रेक्षापूर्वकं धर्ममादिशत् ॥७६॥ आयुर्विश्ववपुर्भोग राज्यश्रीखसुखादिकान् । शम्पा इव चलान् ज्ञात्वाराध्यो मोक्षोऽचलो बुधैः ॥७७॥ मृत्युरुक्क्लेशदुःखादेर्न जन्तोः शरणं कचित् । धर्मं विनेति मरवाहो कर्तव्यस्तत्क्षयाय सः ॥ ७८ ॥ विश्वदुःखाकरीभूतं घोरं संसारसागरम् । विज्ञायात्र तदन्ताष्ट्ये सेव्यं रत्नत्रयं महत् ॥७९॥ एकाकिनं विदित्वा स्वं जन्ममृत्युजरादिषु । ध्येयो ह्येको जिनेन्द्रो वा स्वात्मैकस्वपदातये ॥८०॥ अन्यस्वं स्वात्मनोज्ञात्वा वपुरादेश्व निश्वयात् । मरणादौ स्वसिद्ध्यर्थं त्यक्त्वाङ्गादीन् हितं चर ॥८१॥ सप्तधातुमयं निन्द्यं पूतिगन्धि कलेवरम् । यमागारं सुधीर्वीक्ष्य कथं न धर्ममाचरेत् ॥८२॥ कर्मावेण जीवानां संपातोऽत्र भवार्णवे । मस्वेति सुधिया प्राह्मा दीक्षाद्यास्त्रवहानये ॥८३॥ संवरेण सतां नूनं मुक्तिश्रीर्जायते तराम् । ज्ञात्वेति स विधेयोऽत्र मुक्त्यै मुक्त्वा गृहाश्रमम् ॥८४॥ यदात्र निर्जरा कृत्स्नकर्मणां तपसा सताम् । तदैव मुक्तिरामेति ज्ञात्वा कार्य तपोऽनधम् ॥ ८५ ॥ परमार्थेन विज्ञाय दुःखैः पूर्ण जगत्त्रयम् । चानन्तशर्मंदं मोक्षं तदाप्स्यै संयमं भज ॥ ८६ ॥
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द्वारा वह सदा स्वयं धर्म करता था और उपदेश देकरके अपने भृत्यों, स्वजनों एवं राजाओंसे कराता था ।।७२|| इस प्रकार वह समस्त राजाओंके मध्यमें अपनी पुण्य चेष्टाओंसे धर्ममूर्तिके समान शोभाको प्राप्त हुआ, जैसे कि देवोंके मध्यमें जिनदेव शोभाको प्राप्त होते हैं || ७३ ॥
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इसके पश्चात् एक दिन वह चक्रवर्ती अपने परिवारके साथ बड़ी विभूतिसे हर्षित होता हुआ क्षेमंकर जिनेश्वरकी वन्दना करनेके लिए गया ||७४ || वहाँपर उन जिनेन्द्रदेवको तीन प्रदक्षिणा देकर, मस्तकसे नमस्कार करके और भक्तिसे दिव्य पूजन- द्रव्यों द्वारा पूजा करके मनुष्योंके कोठेमें जा बैठा ||१५|| तब जिनेश्वरदेवने उसके हित के लिए दिव्यध्वनि द्वारा सर्वगणोंको लक्ष्य करते हुए प्रतीति (श्रद्धा) और अनुप्रेक्षापूर्वक धर्मका उपदेश दिया ||७६ || भगवान् ने कहा-आयु, शरीर, भोग, राज्यलक्ष्मी और इन्द्रियोंके सुख आदिक सभी संसारकी वस्तुओंको बिजलीके समान चंचल अनित्य जानकर ज्ञानियोंको अचल मोक्षकी आराधना करनी चाहिए ||७७|| मृत्यु, रोग, क्लेश और दुःखादिसे प्राणीको शरण देनेवाला धर्मके बिना कहीं पर भी और कोई नहीं है, अतः ऐसा समझकर दुःखोंके क्षय करने के लिए अहो भव्यजीवो, तुम्हें धर्म करना चाहिए || ७८|| यह घोर संसार-सागर सर्व दुःखोंका भण्डार है, ऐसा समझकर उसके अन्त करनेके लिए महान् रत्नत्रय धर्मका सेवन करना चाहिए ॥ ७९ ॥ जन्म, मरण और जरा आदि अवस्थाओं में अपने को अकेला समझकर एकत्वकी प्राप्तिके लिए एकमात्र जिनेन्द्रदेवका अथवा अपनी शुद्ध आत्माका ध्यान करना चाहिए ||८०|| अपने आत्माको शरीरादिसे भिन्न जानकर निश्चयसे आत्मसिद्धिके लिए मरणादिके समय शरीरादिको छोड़कर हितका आचरण करना चाहिए ॥ ८१ ॥ | यह शरीर सप्तधातुमय है, निन्द्य है, पूति गन्धवाला है और यमका घर है, ऐसा देखकर ज्ञानी जन क्यों नहीं धर्मका आचरण करें ॥ ८२ ॥ कर्मोंके आस्रवसे जीवोंका संसार समुद्र में पतन होता है, ऐसा मानकर आस्रवकी हानिके लिए ज्ञानी जनोंको दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ||८३|| संवरके द्वारा सन्त जनोंको नियमसे मुक्तिश्री शीघ्र प्राप्त होती है, ऐसा जानकर गृहाश्रम छोड़के मुक्तिके लिए प्रयत्न करना चाहिए ||८४|| जब तपके द्वारा सर्व कर्मों की निर्जरा हो जाती है, तभी सज्जनोंको मुक्तिरामा प्राप्त होती है, ऐसा जानकर सबको निर्दोष तप करना चाहिए || ८५|| परमार्थसे इस जगत्त्रयको दुःखोंसे भरा हुआ जानकर और