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१.८७]
प्रथमोऽधिकारः निषष्टिपुरुषादीनां महतां च महर्धयः । यत्रोच्यन्ते पुराणानि भवान्तराणि संपदः ॥८॥ भन्यानि शुभपाकानि कथ्यन्ते यत्र कोविदैः । सा सर्वा सूनृता धर्मकथा सारा शुभप्रदा ॥४॥ पूर्वापराविरुद्धा च श्रोतव्या जिनसूत्रजा । शृङ्गारादिमवा नान्या जातुचित्पापकारिणी ॥४२॥ इत्थं सद्वक्तृ-सच्छ्रोतृ-कथानां लक्षणं पृथक् । सम्यक निरूप्य वक्ष्येऽहं चरित्रं पावनं परम् ।।३।। श्रोवीरस्वामिनो रम्यं महापुण्यनिबन्धनम् । वक्तृ-श्रोतृजनादीनां हितमुद्दिश्य पापहृत् ॥८॥ येन श्रुतेन सभ्यानां पुण्यं संचयिते तराम् । 'पूर्वपापं क्षयं याति संवेगो वर्धते महान् ॥८५।। इति सकलसुयुक्त्या स्वेष्टदेवान् प्रणम्य परमगुणयुतान् वक्त्रादिसर्वाग्निरूप्य । जिनवरमुखजातां सत्कथां धर्मखानि चरमजिनपतेर्वच्मीह कर्मारिशान्त्यै ॥४॥ वीरो वीरनराग्रणीगुणनिधि/रा हि वीरं श्रिता वीरेणेह भवेत्सुवीरविभवं वीराय नित्यं नमः । वीराद् वीरगुणा भवन्ति सुधियां वीरस्य वीराश्चरा वीरे भक्तिसुकुर्वतो मम गुणान् हे वीर देह्यद्भुतान् ॥८॥ इति भट्टारकश्रीसकलकीर्तिदेवविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते इष्टदेवनमस्कार
वक्त्रादिलक्षणप्ररूपको नाम प्रथमोऽधिकारः ॥१॥ जिसमें वर्णित हों, जिसमें तिरेसठ शलाका महापुरुषोंकी महाऋद्धि, उनके चरित, भवान्तर
और सम्पदाका वर्णन किया गया हो, जिसमें विद्वानोंके द्वारा अन्य अनेक पुण्य-विपाक कहे गये हों, ऐसी सभी सारभूत पुण्यदायिनी सच्चो धर्मकथाएँ जाननी चाहिए ।।७७-८१।। जो पूर्वापर विरोधसे रहित है, ऐसी जिनसूत्रसे उत्पन्न हुई सत्कथाएँ ही श्रोताओंको सुननी चाहिए। किन्तु शृंगार आदिका वर्णन करनेवाली पापकारिणी अन्य कोई भी कथा कभी नहीं सुननी चाहिए ।।८२॥
इस प्रकार उत्तम वक्ता, श्रोता और कथाका लक्षण पृथक्-पृथक् सम्यक् प्रकारसे निरूपण करके अब मैं श्री वीरस्वामीका परम पावन, रमणीक और महापुण्यका कारणभूत पापका नाशक चरित्र वक्ता और श्रोता आदि जनोंके हितका उद्देश्य करके कहूँगा। जिसके सुनने से सभ्यजनोंके अत्यन्त पुण्यका संचय होता है और पूर्वभवके पाप क्षयको प्राप्त होते हैं तथा महान संवेग बढ़ता है ।।८३-८५॥
इस प्रकार सकल सुयुक्तियोंसे परम गुणयुक्त अपने इष्ट देवोंको प्रणाम करके और वक्ता आदि सभीका स्वरूप कहके, जिनेन्द्रदेवके मुखकमलसे उत्पन्न हुई, धर्मकी खानिस्वरूप अन्तिम जिनपति महावीर स्वामीकी सत्कथाको अपने कर्म-शत्रुओंके शान्त करनेके लिए कहता हूँ ॥८६॥
वीरजिनेन्द्र वीर मनुष्योंमें अग्रणी हैं, गुणोंके निधान हैं, वीर पुरुष ही वीर जिनके आश्रयको प्राप्त हुए हैं, वीरके द्वारा ही इस लोकमें उत्तम वीर-वैभव प्राप्त होता है, ऐसे श्री वीरस्वामीको मेरा नमस्कार हो। वीरसे सुबुद्धिशालियोंके वीर-गुण प्राप्त होते हैं, वीर जिनेन्द्रके अनुचर भी वीर ही होते हैं, ऐसे वीरजिनेन्द्र में भक्तिको करनेवाले मेरे हे वीर, तू मुझे अपने अद्भुत गुणोंको दे ॥८॥ इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकोतिविरचित श्रीवीर-वर्धमान-चरितमें इष्टदेवको नमस्कार
और वक्ता आदिके लक्षणोंका वर्णन करनेवाला प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ॥१॥
१. व सर्वपापं ।
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