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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[३.१०१चक्ररत्नं क्रुधादायासन्नमृत्युय॑घोदयात् । परीत्य प्रेषयामास त्रिपृष्ठं प्रति निष्ठुरम् ॥१०॥ तत्तं प्रदक्षिणीकृत्य तस्थौ तद्दक्षिणे भुजे । तस्य पुण्यविपाकेन त्रिखण्डश्रीवशीकरम् ॥१०२॥ त्रिपृष्टो द्वतमादाय चक्र शत्रभयंकरम् । उहिश्य स्वरिपं कोपादक्षिपत्रिष्टुराशयः ॥१०३॥ अश्वग्रीवोऽपि तेनाप्य मृति रौद्राशयोऽशुभात् । बह्वारम्भधनाद्यैः प्राग्बद्धश्वभ्रायुरेव च ॥१०॥ कृत्स्नदुःखाकरीभूतं शर्मदूरं घृणास्पदम् । महापापोदयेनागात्सप्तमं नरकं कुधीः ॥१०५॥ त्रिपृष्ठोऽथ जगत्ख्याति लब्ध्वा तन्निर्जयाद्यशः । प्रसाध्य चक्ररत्नेन त्रिखण्डस्थान्नराधिपान् ॥१०६॥ खगेशान्मागधादींश्च व्यन्तराधिपतीन् बलात् । तेभ्य आदाय सारार्थान् कन्यारत्नादिगोचरान् ॥१०७॥ श्रेणीद्वयाधिपत्येन रथनूपुरभूपतिम् । नियोज्य परया भूत्या षडङ्गबलवेष्टितः ॥१०॥ सिद्धदिग्विजयः श्रीमान् साग्रजो बहुपुण्यवान् । लीलया प्राविशद्दिव्यं स्वपुरं यादिमण्डितम् ॥१०९॥ प्रागर्जितायपाकेन सप्तरत्राद्यलंकृतः । अमरैः खेचरैः षोडशसहस्रनृपैर्नुतः ॥११०॥ सहस्रद्वयष्टसंख्याभिः भूपपुत्रीमिरन्वहम् । केवलं विविधान् भोगानन्वभूदादिकेशवः ॥१११॥ मृत्युपर्यन्तमेवातिगृद्वया वृत्तांशदूरगः । धर्मदानार्चनादीनां नाममात्रं विहाय च ॥११२॥ ततः श्वभ्रायुरेवासौ बह्वारम्भपरिग्रहैः । अतीवविषयासक्त्या बध्वा दुनिलेश्यया ॥११३॥ रौद्रध्यानेन मुक्त्वासून पापमारेग पापधीः । धर्मादृते पपातान्ते सप्तमे नरकार्णवे ॥११४॥ तत्रोपपाददेशे स बीभत्सेऽतिघृणास्पदे । अधोमुखो हि पूर्णाङ्गं संप्राप्य घटिकाद्वयात् ॥११५॥ अद्भत युद्ध में भावी चक्रवर्ती त्रिपृष्ठने विद्योपनत मायावी एवं अन्य शस्त्रास्त्रोंके द्वारा अतिपराक्रमसे अश्वग्रीव को जीत लिया। तब आसन्नमृत्यु उस अश्वग्रीवने पापके उदयसे क्रोधित हो चक्ररत्नको निष्ठुरतापूर्वक त्रिपृष्ठके ऊपर चलाया। वह चक्ररत्न त्रिपृष्ट की प्रदक्षिणा देकर उसके पुण्योदयसे उसकी दाहिनी भुजापर आकर विराजमान हो गया। तब त्रिपृष्ठने तीनखण्डकी लक्ष्मीको वशमें करनेवाले और शत्रुओंके लिए भयंकर उस चक्रको शीघ्र लेकर निष्ठुर हृदय होके क्रोधसे अपने शत्रुको लक्ष्य करके फेंका । रौद्रपरिणामी कुबुद्धि अश्वग्रीव भी उस चक्रके द्वारा मरणको प्राप्त होकर तथा बहुत आरम्भ-परिग्रहादिके द्वारा पूर्वमें नरकायुके बाँधनेके महा अशुभ पापोदयसे समस्त दुःखोंकी खानिभूत, सुखसे दूर, घृणास्पद, सातवें नरकको प्राप्त हुआ ।।१००-१०५॥
- इसके पश्चात् उस अश्वग्रीवके जीतनेसे जगद्-व्याप्त यश और ख्यातिको प्राप्त कर चक्ररत्नके द्वारा तीनखण्डोंमें रहनेवाले सर्व राजाओंको, विद्याधरेशोंको और व्यन्तरोंके अधिपति मागध आदि देवोंको अपने बलसे वशमें करके और उनसे कन्यारत्न आदि विषयक सार पदार्थोको लेकर, तथा विजयाध पर्वतकी दोनों श्रेणियोंके आधिपत्यपर रथनूपुरके नरेशको नियुक्त कर, षडङ्गसेनासे वेष्टित, बड़े भाई विजयके साथ दिग्विजय सिद्ध करके वह बहुपुण्यशाली श्रीमान् त्रिपृष्ठनारायण लीलापूर्वक लक्ष्मी-शोभा आदिसे मण्डित अपने दिव्यपुरमें प्रविष्ट हुआ ॥१०६-१०९॥ पूर्वोपार्जित पुण्यके परिपाकसे सुदर्शनचक्र आदि सप्त रत्नोंसे अलंकृत, देव, विद्याधर और सोलह हजार राजाओंसे नमस्कृत, और सोलह हजार राजपुत्रियोंके साथ निरन्तर एकमात्र नाना प्रकारके भोगोंको वह आदि वासुदेव त्रिपृष्ठ भोगने लगा ॥११०-१११।। मरण-पर्यन्त वह अतिगृद्धिसे भोगोंको भोगता हुआ, चारित्रके अंदासे भी दूर रहता हुआ, और धर्म, दान, पूजनादिके नाममात्रको भी छोड़कर विषयोंमें अति आसक्त रहा । इस कारण और बहुत आरम्भ परिग्रहसे, तथा खोटी लेश्यासे नरकायुको बाँधकर वह पापबुद्धि रौद्रध्यानसे प्राणोंको छोड़कर धर्मके बिना पापके भारसे सातवें नरक-सागरमें गया॥११२-११४।। वहाँ अति बीभत्स, अति घृणास्पद उत्पत्तिस्थानमें अधोमुख हुए उसका जन्म हुआ। दो घड़ीमें ही पूर्ण शरीरको प्राप्त कर एक हजार बिच्छुओंके काटनेसे भी अधिक
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