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३. १३१ ]
तृतीयोऽधिकारः
वृश्चिकैकसहस्राधिकवेदनविधायिनि । रावं परं प्रकुर्वाणो न्यपतच्छ्वभ्रभूतले ॥ ११६॥ उत्पत्याशु पुनस्तस्माद् गव्यूतिशतविंशतिम् । वज्रकण्टकसंकीर्णे महापीठे पपात सः ॥११७॥ ततो वीक्ष्य स दीनात्मा नारकान् मारणोद्धतान् । कृत्स्ना साताकरीभूतं तत्क्षेत्रमित्यचिन्तयत् ॥ ११८ ॥ अहो केयं धरा निन्द्या सर्वदुःखनिबन्धना । केनामी नारका रौद्रा वेदनादानपण्डिताः ॥ ११९ ॥ कोऽहं कस्मादिहायात एकाकी सुखदूरगः । केन दुःकर्मणा वाहमानीतोऽत्र भयास्पदे ॥ १२०॥ इत्यादिचिन्तनादाप्य विभङ्गावधिमाश्वतः । श्वभ्रे स्वपतितं ज्ञात्रा विलापमिति सोऽकरोत् ॥१२१॥ अहो मया पुरा जीवराशयोऽनेकशो हताः । असत्यकटुकादीनि भाषितानि वचांसि च ॥१२२॥ परश्रीयादिवस्तूनि सेवितानि हठान्मया । मेलितानि धनादीनि लोभग्रस्तेन पापिना १२३॥ खादितान्यखाद्यानि चासेव्य सेवितानि वै । अपेयान्यपि पीतानि पञ्चेन्द्रियवशात्मना ॥ १२४॥ किमत्र बहुनोक्तेन मया सर्व खलात्मना । पापमेकं कृतं घोरं प्राग्भवे स्वस्य घातकम् ॥ १२५ ॥ न कृतः परमो धर्मः स्वर्गमुक्तिनिबन्धनः । न मनाक् पालितान्येव व्रतानि शुभदानि च ॥ १२६॥ नानुष्ठितं तपः किंचित्पात्रदानं न जातुचित् । पूजनं वा जिनादीनां शुभकर्म न चापरम् ॥ १२७ ॥ अन तेषां समस्तानां महाघाचरणात्मनाम् । विपाकेन महातीव्रा वेदना मे पुरःस्थिताः ॥ १२८ ॥ अतोऽहं च क गच्छामि कं पृच्छामि वदामि कम् । कस्य वा शरणं यामि कस्त्राता मे भविष्यति ॥ १२९ ॥ इत्यादिचिन्तनोत्पन्नैः पश्चात्तापैदु रुत्तरैः । दह्यमानमना यावद्वर्तते सोऽतिदुःखभाक् ॥ १३०॥ तावत्ते प्राक्तनाः पापा नारका एत्य तत्क्षणम् । मुद्गरादिप्रहारैस्तं घ्नन्ति नूतननारकम् ॥ १३१ ॥
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वेदना देनेवाली नरक भूमिपर दारुण शब्द करता हुआ गिरा । पुनः वहाँ से एक सौ बीस कोश ऊपर उछलकर वज्रमय कंटकोंसे व्याप्त नरककी महा दुःखदायी भूमिपर वह गिरा ।।११५-११७।। तब वहाँ वह दीनात्मा त्रिपृष्ठका जीव मारनेके लिए उद्धत नारकियोंको तथा समस्त असाताकी खानिरूप उस क्षेत्रको देखकर इस प्रकार चिन्तवन करने लगा ॥ ११८ ॥ अहो, सर्वदुःखोंकी कारणभूत यह कौन-सी निन्द्य भूमि है ? यहाँपर वेदना देने में अतिकुशल महाभयानक ये रौद्रस्वभावी नारकी कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? सुखसे दूर, अकेला मैं कहाँ गया हूँ ? अथवा किस दुष्कर्म से मैं इस अतिभयावने स्थानपर लाया गया हूँ ? इत्यादि चिन्तवन करनेसे शीघ्र प्राप्त हुए विभंगावधिज्ञानसे अपनेको नरक में पतित हुआ जानकर वह इस प्रकार से विलाप करने लगा ||११९ - १२१ ।। अहो, मैंने पूर्वभवमें अनेक बार जीवराशियों का संहार किया, असत्य और कटुक-निन्द्य आदि वचन बोले, परायी लक्ष्मी, स्त्री और अन्य वस्तुओं मैंने बलात्कारसे सेवन किया, लोभग्रस्त होकर मुझ पापीने धनादिका संग्रह किया, अखाद्य वस्तुओंको खाया, असेवनीय पदार्थों का सेवन किया और निश्चयसे पाँचों इन्द्रियोंके वश होकर मैंने अपेय मदिरा आदिका पान किया ।। १२२ - १२४ ।। इस विषय में अधिक कहने से क्या मुझ पापात्माने पूर्व भवमें अपना ही घात करनेवाले सर्व पापोंको किया । किन्तु स्वर्ग और मुक्तिको देनेवाला परम धर्म नहीं किया और न सुखदायी व्रतोंको ही रंचमात्र पालन किया । न तपका अनुष्ठान ही किया और न कभी पात्रोंको दान ही दिया । जिनदेवादिकी पूजा ही की और न कोई दूसरा शुभ काम ही किया । इसलिए यहाँ पर उन महा पापाचरणवाले समस्त कार्योंके विपाकसे यह महातीव्र वेदना मेरे सामने उपस्थित हुई है ।।१२५ - १२८।। अतएव अब मैं कहाँ जाऊँ, किसे पूछूं और किससे कहूँ ? मैं किसकी शरण जाऊँ ? यहाँपर कौन मेरा रक्षक होगा ? इत्यादि विचारसे उत्पन्न हुए दुरुत्तर पश्चात्तापों से जिसका हृदय जल रहा है ऐसा वह त्रिपृष्ठका जीव अति दुःख भोगता हुआ अवस्थित था, तभी पूर्व में उत्पन्न हुए पापी नारकी लोग उसके समीप तत्क्षण आकर इस नवीन नारकीको मुद्गर आदि प्रहारोंसे मारने लगे ॥१२९ - १३१॥
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