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पुरोष्ट्वा ह्यन्वयु केति तं प्रति । भो मामक ! हलीपेशा विद्यते कतिका इमे ॥ १३२ ॥ समाकर्ण्य तथा प्रोक्त' पुनः प्रोवाच तं प्रति दर्याः कंटका माम ! कति संत्येव निश्चितं ॥ १३३ ॥ चिंशयामास मूर्खोऽयं श्रष्ठी चिंतापरायण: 1. एवं प्रश्नवितकेंषु सत्सु तौ जग्मतुस्तरां ॥ १५४ ॥ घेारामेहिन एवं समान्य ल. जो तं भूपजं प्राह कुत्र यासि त्वकं वद ॥ १३५ ॥ तदा कुमार आहेत विद्यामि सरसस्स | इंद्रदत्तो वणिक् प्राह विनाशां नैव गम्यतां ॥ १३६ ॥ इत्युक्त्वा स्वगृहे यात इंद्रदत्तो वणिग्वरः । श्र णिकश्चि तयामास धिश्रीं वाणिजामिति ॥ १३७ ॥ वेश्यमै श्रीमहिकीड़ां द्यूतकर्म विपादनं । योषिद्धमं त्यजेद्विद्वान् मुदाकांक्षी कुसंगतां ॥ १३८ ॥ पितरं श्रमसंयुक्त' ष्ट्योवाच सुता मुदा । नंदश्रीर्नागकन्येव रूपरंजितरंभिका ॥ १३६ ॥ हे तात! सह फेनैव चागतस्त्वं वद हमें कितनी शाखायें ( हिस्से ) हैं । कुमारके ये वचन सुनकर भी सेठ इंद्रदत्त उसे मूर्ख समझ चुप रहगये। आगे चलकर एक वदरीवृत पड़ा उसे देख कुमार श्रेणिकने पूछा- बताइये मामा ! इस वृत्रमें कितने कांटे हैं । कुमारका यह प्रश्न सुन इंद्रदत्तके मनमें पूरा विश्वास हो गया कि यह वालक अवश्य पूरा पागल है। बस इसप्रकार प्रश्न और वितर्क करते करते वे दोनों मार्गमें सानंद गमन करते जाते थे । १३२ – १३४ ॥ सेट इंद्रदत्तकी जन्मभूमि वेगातड़ाग नामका नगर था । मार्ग में चलते चलते जिस समय वेगातड़ाग आया सेठ इंद्रदत्त वहीं ठहर गया एवं कुमारसे यह कहने लगा कि भाई मेरा घर तो आ गया, में अव अपने घर जाता हूँ, तुम अब यहां से कहां जाओगे . कहो ? उत्तर में कुमार ने कहा- इससमय तो में इसी तालावके किनारे ठहरू गा । कुमारकी यह बात सुनकर इन्द्रदत्तने कहा-अच्छा ठीक है परंतु मेरी आज्ञाके बिना आगे मत जाना। बस ऐसा कह कर सेठ अपने घर चला गया। सेठ इन्द्रदत्तके ऐसे सूखे व्यवहार से कुमार श्रेणिकको कुछ कष्ट हुआ। वे मन ही मन यही विचारने लगे कि वणिकोंके साथ की गई मित्रता के लिये धिक्कार है । जो विद्वान कल्याणके इच्छुक हैं उन्हें वणिकोंके साथ मित्रता, सर्पोंके साथ क्रीड़ा जा खेलना विष खाना स्त्रियोंकी संगति और खोटी संगतिका करना सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥ १३५ - १३८ ॥
सेठ इन्द्रदत्तकी एक नंदश्री नामकी कन्या थी जो कि अपने मनोहर रूपसे अप्सराकी