Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाया : ३५६-३६३ ]
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गोव रहेस...
झोत
जीहा विविह रखेसु, फासे
महाहियारो
अर्थ :- भोगभूमिजोंकी श्रोत्र- इन्द्रिय गीतोंकी ध्वनिमें, चक्षु रूपमें घास सुन्दर सौरभ में, जिल्ला विविध प्रकारके रसोंमें और स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्श में रमना करती है ।।३५९ ।।
होते हैं मोर है ।। ३६३ ।।
इय अग्लोनासता, ते जुगला वर खिरंतरे भोगे । सुलभे विम सत्तिति इंडिय विसएसु पार्श्वति ॥ ३६० ॥
अर्थ:- इस प्रकार परस्पर आसक हुए वे युगल ( नर-नारी ) उत्तम भोग- सामग्रीके निरन्तर सुलभ होने पर भी इन्द्रिय-विषयों में तृप्त नहीं हो पाते ।। ३६०।1
जुगलागि श्रणंतगुणं भोगं खक्कहर - भोग- लाहादो' । भुति जाब आउं, कदलीघादेण रहिवास ।।३६१ ।।
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सिवियं रमइ ३५६ ॥
अर्थ :- भोगभूमियों के वे युगल कदलीपात मरण से रहित होते हुए आयु पर्यन्न चक्रवर्तीके भोग लाभको मपेक्षा अनन्तगुणे भोग भोगते हैं । ३६१ ॥
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कपडुमविषण, घेषण विकुल्बणाए बहुवेहे ।
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कापूर्ण ते जुगला, अमेव भोगाई" भुंजंसि ॥३६२॥
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श्र:- वे युगल, कल्पवृक्षों द्वारा दी गई वस्तुओं को ग्रहण करके मौर विक्रिया द्वारा बहुत प्रकारके शरीर बना कर अनेक भोग भोगते हैं ।। ३६२ ।।
१. अ. ब. क. ज. य. न. मा । २.
क. ज. य. ३. जास
पुरिसा वर मउड- धरा, देविदावो बि सुबरायारा ।
अभ्र सरिसा इत्यो, मणि-कुंडल-मंडिय-कोला ।। ३६३।।
[ १११
:- ( वहाँ पर ) उत्तम मुकुटको धारण करने वाले पुरुष इन्द्रसे भी अधिक सुन्दराकार मणिमय कुण्डलोंसे विभूषित कपोलों वाली स्त्रियां श्रप्सराओंके सदृश होती
४. क. भोगाय ज. भोमा । ५.
व. म. व भोगवाहादो, व भागवावादी । क.ज.प. पौडबरा ।
३. द.म.