Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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४६६ ] तिलोयपष्णाती
[ गापा : १६३४ पर्य :-जितने भनुष्य पौर तिर्यस्य (चतुर्पकास स्वरूप ) अषन्य मोगभूमिमें प्रवेश करते हैं उतने ही जीव सह काखोंके भीतर परत ऐरावत क्षेत्रोंमें होते हैं ।।१९३३।।।
निवार्य :- अवपिणीके प्रतिदुःषमाकालके अन्तिम ४ दिनों में पशुप्त वर्षा होती है। उस समय विद्याधर मोर देन मनुस्य एवं तिचोंके सुख सगालोको विजयाई और मुंगा-सिन्धुको पेदी स्थित गुफाओं में रख देते है ( गा० १५६६ ) । उत्सपिरणोके अतिदुःषम कालके प्रारम्भमें सुवृष्टि होमेके बाद वे जीव वहासे बाहर निकलते है ( मा० १५८३), जो संख्यामें पति-अल्प होते है, इसी कारण उस समय भरलनोरावत क्षेत्रों के प्रार्यस्खण्डोंमें मनुष्यों मार तिर्योंकी संम्पा भति-अल्प होती है (गा० १६३०)। उसके बाद अतिदुःषमा, दुःवमा और दुःषमसुषमा अर्थात् पहले, दूसरे और तीसरे कालके मन्त-पर्यन्त मनुष्यों तथा सकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवोंका यह प्रमाण बढ़ता जाता है। प्रति दुःवममुषमाके अन्त तक इनको उत्पत्ति होती रहती है ( गा. १६३१)। इसके पश्चात् मुषमःषमा नामक पर्ष कालके प्रथम समयमें ही विकलेन्द्रिय प्राणियों का विनाश हो जाता है और कल्पवृक्षोंकी उत्पत्ति हो जाती है ( 41० १६३२) क्योंकि उस समय कर्मभूमिका तिरोभाव और भोगभूमिका प्रादुर्भाव हो जाता है।
मरस-ऐरावत क्षेत्रों के मार्यचण्डोंमें बतुषंकाल स्वरूप इस जघन्य भोगभूमिमें जितनी संख्या प्रमाण मनुश्य और तिर्यच प्रवेश करते हैं, उतने ही जोव उत्सपिणो सम्बन्यो । सुषमदुःषमा, २ सुषमा और ३ मुषमसुषमा सवा भवसपिरणो सम्बन्धी ४ सुषमसुषमा, ५ सुषमा और । सुवमदुःषमा इन छह कालों में रहते हैं । गा. १६३३ ) । इन छह कालोंने अपान १ कोजाकोड़ी सागर पर्यन्त इन जीवोंको संख्या हानि-द्धि नहीं होती है कारण कि उस समय मनुष्य और तिमंच युगक्ष रूपमें ही अम्म लेते हैं और युगलपमें ही मरते हैं ।
विकतेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति एवं वृद्धि-- अबसप्पिणीए दुस्समसुसम - पवेसस्स पहम समम्मि । विलिनिय - उप्पची, बढी जोशण घोष • कासम्मि ॥१६३१
मई :-अवसपिणी कालमें दुःषमसुषमा ( चतुर्य ) कालके प्रारम्भिक प्रपम समयमें हो विकलेन्द्रिय जीवोंको उत्पत्ति तथा थोडे ही समयके भीतर उनको पनि होने लगती है ।।१६३४॥
विरोरा:-भोगभूमि सम्बन्धी उपयुक्त तीन-तीन वर्षात् छह काल व्यतीत हो पानेके बाद दुषमसुषम ( चतुपं) काल के प्रारम्भिक समयमें ही विकलेग्गिय औयों की उत्पत्ति हो जाती है।