Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाया : २२४७-२२४९ ]
ariate :- अ
चरणो महायारों
"निकालने के नियम
विजय-गयवंत-सरिया, वेबारण्णाणि भहसाल - वनं ।
यि णिय फलेहि गुणिदा, कावस्या मेरु फल-जुत्ता ।। २२४७।।
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एवाणं रचिणं पिफलं जोयक
लक्खमि ।
सोहिय णियंक भजिबे, जं लम्भइ तस्स सो चासो ।। २२४६ ||
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[ ६०१
अर्थ :- विजय ( क्षेत्र ), गजदन्त, नदी, देवारण्य और भट्टणाल, इनको अपने-अपने फलोंसे ( क्रमश: १६,८६,२, २ से गुणा करके मे फलमें जोड़ें, पश्चात् इनको जोड़नेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसको एक लाख योजनमें से घटाकर अपने-अपने अंकोंका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उत्तना उस क्षेत्रका विस्तार होता है ।। २२४७ - २२४८ ।।
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विशेवार्थ - जिस मेरु, क्षेत्र, गजदन्त, विभंगा नदी, देवारण्यवन एवं भद्रशाल ग्रादिका पूर्व-पश्चिम व्यास प्राप्त करना हो उसे छोड़कर अन्य सभीके अपने-अपने व्यासोंको प्रपने-अपने गुरणकार ( क्षेत्र व्यास २२१२ यो० x १६ कार व्यास ५०० यो०४८. विभंगा व्यास १२५ मो० ४१, देवार २६२२ यो० २ और मशालका व्यास २२००० यो० २ ) से गुणाकर मेरुव्यास १०००० योजन में जोड़ें और योगफलको जम्बूद्वीप के व्यास मेंसे घटानेपर जो अवशेष रहे उसे विवक्षित क्षेत्र श्रादिकं प्रमाणसे भाजित करनेपर इष्ट क्षेत्र प्रादिका व्यास प्राप्त हो जाता है।
አ
क्षेत्र विस्तार
चच-गण-पण-चच-छक्का सोहिय अंकक्कमेण वासारो ।
सेस सोलस भजिवं, विजयानं जाण
बिक्लंभो ||२२४६
६४५१४ । २२१२२ ।
अर्थ:-बार नो पाँच, चार और वह इस अकु क्रमसे उत्पन्न हुई ( ६४५६४ ) संस्थाको जम्बूद्वीप के विस्तारमें से कम करके जो शेष रहे उसमें सोलहका भाग बेनेपर जो प्राप्त हो उसे क्षेत्रोंके विस्तारका ( २२१२३ यो० ) प्रमाण जानना चाहिए || २२४९ ॥
विशेषार्थ :- इस गाथामें विदेहस्थ सोलह क्षेत्रों में से एक क्षेत्रका विस्तार निकालनेकी प्रक्रिया दर्शाई गयी है । यथा-