Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 835
________________ ६०८ ] तिलोयपणती [ गाथा : ३००४-२००६ सिम्झति एक्क - समए. उपकस्से अवरपम्मि एक्केव। मझिम - परिषदीए, बउहरि सम्म - समए॥३००४।। पर्य :- इन आठ समयों में से प्रत्येकमें क्रमशः उत्कृष्टरूपसे बत्तीस, पड़तालोस, साठ, बहत्तर, बौरासो, पानवे और अन्तिम दो समयों में एकसौपाठ - एकसौसाठ • जीव तथा जघन्यरूपसे एक-एक सिद्ध होते हैं। मध्यम प्रतिपसिसे सब समयोंमें । ५९२- ७४) चौहत्तर-चौहत्तर जीव सिद्ध होत है ।। ३०० तीद - समपाण सम्ब, पग-सप-बारपउदि-रूप-संगुगिय । अर'- समयाहिय - छम्मासय • भजिदं गिरावदा सम्वे ॥३००५॥ म। ५६२ । मा ६ ॥ स - 1 एवं मिनि-गमम-परिमाण समरी ॥१६॥ प –प्रतीतकाल के सर्व समयोंको ( ५६२) पांचसो पानवे रूपोंसे गुणित करके उसमें माठ समय मधिक छह मासोंका भाग देनेपर लब्ध राशि प्रमाण संब निवृत्त अर्थात् मुक्त जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है ॥३००४॥ (अतीतकालके समय ४ ५९२) ६ मास ८ समय = मुक्त जोर । इसप्रकार सिद्धतिको प्राप्त होने वालोंके प्रमाणका कथन समाप्त हुआ ।।१६।। अधिकारान्त मङ्गलसंसारणव'-महणं, सिलवण-भवाण "पेम्म-पुह-चलन। संवरिसिय सयलहुँ, सुपासमाहं णमंसामि ॥३००६॥ एवंमाइरिप-परंपरागय -तिलोयपन्नतीए मगु - जग'-सस्व- णिवण-पणती नाम बत्यो महाहियारो समतो ॥४॥ प्र:-तीनों लोकोंके भव्यजनोंके स्नेह युक्त परणोंवाले समस्त पदापोंके दर्शक और संसार-समुद्रके मथन-कर्ता सुपाश्वनाथ स्वामीको मैं नमन करता हूँ ।।३००६॥ इसप्रकार माचार्य परम्परागत त्रिलोकप्रप्तिमें मनुष्यलोक स्वरूप निरूपण करने वाला चतुष-महाधिकार समाप्त हुआ । १. इ..क.ब. ३ प्रारमयाबिय प्रभासयम्भि भजि विम्मदा। २. स. ब. क. समत्ता। ......... संसारमगपाहणं । ४. व. ब. क. अ... पेम्मदहजमणा । ५... क. . . परंपरायम्य । 1... ह. अ. उ. पवाणिती बलसंपणती।

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