Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा : २५४७ - २५५१ ]
आहार - सण परिमाणं जिन
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उत्यो महाद्दियारो
सत्ता, लोह-कसएण जणित-मोहा जे 1
लिगं, पावं कुवंति में घोरं ।। २५४७।।
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ओ कृव्वंति न भक्ति, अरहंताणं तहेव साहूणं ।
शे वच्छल्ल बिहोणा, चाउल्याणम्स संघम्मि ।। २५४८ ।।
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जे गेहंसि सुष्ण-वि जिण-लिंग-धारिणो हिट्ठा । कृष्णा - विवाह संग लुका
जे भुजंति विहीणा, मोर्णणं घोर पाव संलग्गा अणअण्णवजयादो, सम्मत" जे
ते काल यसं पता, फलेण पावाण विसम उप्पकति कुरुवा, कुमालुसा जलहि
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विशासति ।। २५५० ।।
[ ६७६
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पाकाणं ।
दीवसू ।। २५५१।।
:- जो (जीव ) तीव्र प्रभिमान से गवित होकर, सम्यक्त्व और तपसे युक्त साधुओंका किञ्चित् भी अपमान करते हैं। जो दिगम्बर साधुओंको निन्दा करते हैं. जो पापी, संयम-तप एवं प्रतिमायोगसे रहित होकर मध्याचार में रत रहते हैं, जो ऋद्धि, रस और सात इन तीन गारोसे महान होते हुए मोहको प्राप्त हैं, जो स्थूल और सूक्ष्म दोषोंको भालोचना गुरुजनोंके समीप नहीं करते हैं, जो गुरुके साथ स्वाध्याय एवं वन्वनाकर्म नहीं करते हैं जो दुराचारी मुनि संघ छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो क्रोध के वशीभूत हुए सबसे कलह करते हैं, जो आहार संज्ञा में प्रासक्त और लोमकषायसे मोहको प्राप्त होते हैं जो जिन-लिंग धारण करते हुए (भी) घोर पाप करते हैं, जो अरहन्तों ( भाचार्य - उपाध्याय ) तथा साधुओं की भक्ति नहीं करते हैं जो चातुर्वण्यं संघके विषयमें वात्सल्यभावसे विहीन होते हैं; जो जिनलिके घारी होकर सुवर्णादिकको हर्ष से ग्रहण करते हैं, जो संयमीके वेषसे कन्या विवाहादिक करते हैं. जो मौनके बिना भोजन करते हैं, जो घोर पापमें संलग्न रहते हैं, जो अनन्तानुयन्धिचतुष्टयमसे किसी एक के उदित होनेसे अपना सम्यक्त्व नष्ट करते हैं, वे मृत्युको प्राप्त होकर विषम परिपाककाले पाप कर्मों के फलसे ( लवण और कासोदक ) समुद्रोंके इन द्वीपोंमें कुत्सितरूपसे युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं ।।२५४३ - २५५१ ।।