Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 791
________________ ७६४ ] तिलोयपग्णत्ती [ गापा : २८५५-२०१६ एवं सग - सग - विनया आदिम - हंह - पदीओ। गाहिर' - परिम - परेसे, इंदतिम ति पतव्यं ॥२८५३॥ अर्थ :-इस प्रकार अपने-अपने क्षेत्रका मादिम बिस्तारादि है। अब माह चरम-प्रदेशपर इनका अन्तिम विस्तार कहा जाता है ।।२८५३।। भरतक्षेत्रका बाह्य विस्तारपनसटुिर - सहस्सागि, बस्सया जोमणाणि घासलं । तेरस कलामो भणिक, भरहरिसपि । बाहिरेक ।।२८५४॥ ६५४४ III प्रर्ष:-परतक्षेत्रके बाह्य-मागका विस्तार पंसठ हजार चारसौ सपानीस योजन और तेरह कला अधिकार या प्रमाण हो गया हैरा (१४२३०२४१-३५५६८४१)+२१२५१-६५४४६ यो । अन्य क्षेत्रोंका राज्य विस्तारएस्प वि पु गेर पर्ष :-पहिसके सरमा यहाँपर भी हैमवतारिक-क्षेत्रोंका विस्तार चौगुनी दक्षि एवं हानिस्प जानना चाहिए। विवाफ:-हेमवत क्षेत्रका माह्म विस्तार २११७४ीयोजन इत्रिका १०४७१३ यो , विदेहका ४१८६४ यो,रम्पकका १०७१३६३६ई यो, हेरव्यवतका २६१७८४ायो. मौर ऐरावतक्षेत्रका ६umtitm योजन प्रमाण है। पप्रादह तथा पुण्डरीक दहसे निकली हुई नदियोंके पर्वतपर बनेका प्रमाण--- पुरतारबरत - वीवे, खुल्लय-हिमवंत-सिहरि-परिझरले । पउमबह - गरीए, पुष्कर वितम्मि निगम-पदीयो ॥२८५५॥ पटेक-छ-पद-तियं, अंकलमे जोयणानि गिरि-उरि । गंपूर्ण परोक्क, क्लिप - उत्तर - विसम्मि बलि कमे ॥२५५६।। ३८६१८। १....... जाहिरएपरिमपसे तिपत्ति । २.१. पा.....क.प.च, पुष गेवावं । ४. द. ब. क. इ. इ. पहम सह ।

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