Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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तिलोय पण्णी
[ गाया : ९६८-१००१
प्रमाण क्षेत्रमें स्थित विविध रसकि स्वादको जानती है, उसे रास्यादित्व ऋद्धि कहते
हैं ।।६६६-६६७।।
। दूरास्वादित्व ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ ।
दूरस्पर्शत्व ऋद्धि
अन आधा श्री सुविध फासिविय
सुबणाणावरना बोरिमंतरायाए ।
उनकस्स खवोषसमे, उदिदंगोवंग नाम - कम्मम्मि ॥६६६ ।।
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फासुत्रकस्स खिडीदो, बाहिं संखे-भोपण-ठियाणं । जं जाखड़ नूर फासत IEEEW
अट्ठ बिष्फासाणि,
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। सूर- फासं गवं ।
अर्थ :- स्पर्शनेद्रियावरण श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा भङ्गोपाङ्ग नामकर्म का उदय होने पर जो स्पर्शनेन्द्रियके उत्कृष्ट विषय क्षेत्र से बाहर संख्यात योजनोंमें स्थित माठ प्रकारके स्पोंको जानती है वह दूरस्परवऋद्धि है ।।९१८- ९६६
। दूर- स्पर्शदेव ऋद्धिका कथन समाप्त हुआ । दूर- चान्वद्धि-
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घारिबिय सुवणाणावरजाणं बोरियंतरायाए । उपकस्स - सवोवसने, उनिवंगोबंग नाम कम्पनि ||१०००|| धारणुक्कस्स-मिदोदो, बाहि संबंज्ज-जोवण-गनि' । जं बहुविहगंधाणि, सं घादि दूर घागसं । १००१ ॥ । दूर-घाणसं गदं ।
श्रबं :- प्राणेन्द्रिय । दरगु श्रुतज्ञानावरण और वोर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मका उदय होने पर जो प्राणेन्द्रियके उत्कृष्ट विषय क्षेत्रसे बाहर संख्यात योजनोंमें प्राप्त हुए बहुत प्रकारके गन्धोंको सूंघती है, वह दूरमाणाव ऋद्धि है ।। १०००-१००१ ॥
। दूराणस्व ऋद्धिका कपन समाप्त हुआ ।
१.ब.क.उ. गदाएं २. ८. ब. क. ज. य. रा. गंवाएं।