Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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[ गाथा : ८३६-६४४
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विनर बनामो ॥६३६||
कश्व बि हम्मा रकमा, फोडण-सासाओ कर कि परायो । वि पेक्खण-साला, गिअंत-निनिय-जय-चरिया ॥ ८४०॥
करच वि वर-वायोओ, कमसुम्पस-कुमुद-परिमलिला
गानक : सुत्रमिह
तिलोयपष्याती
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अर्थ :- कल्प भूमि में कहीं पर कमल, उत्पल एवं कुमुदोंकी सुगन्धसे परिपूर्ण तथा देव एवं मनुष्य युगलों के शरीरसे निकले हुए केशरके कदमसे पीत जलवाली उत्तम बापिकाऐं. कहीं पर रमणीय प्रासाद, कहीं पर उत्तम क्रीड़न-शालाएँ घोर कहींपर जिनेन्द्रदेव के विजय परित्रके गीतोंसे युक्त प्रेक्षण { नृत्य देखनेकी ) शाखाएं होती हूँ ।। ६३२ - ८४० ।।
बहु-नमो-भूसच्या सव्ये वर- विविह-रयन निम्मदिया । पंति कमेणं, कम्प भूमीसु ॥८४१॥
सोहंते
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एवं
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वर्ष :- उत्तम नाना रत्नोंसे निर्मित और अनेक खण्डों ( मंजिलों ) से सुशोभित ये सब हम्पदिक ( प्रासाद, कोड़ा ग्रह. प्रेक्षागृह आदि ) पंक्ति क्रमसे इन कल्प भूमियोंमें शोभायमान होते हैं । ४१॥
बसारो चतारो, पुण्वाविसु' महा नमेरु-मंदारा । संतान-पारिजावा, सिद्धस्था कप्प भूमी
२
||८४३२ ॥
:- फहपभूमियों पर पूर्वादिक दिशाओं में नमेरु, मत्वार, सन्तानक और पारिजात, ये चार-चार महान् सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं ||६४२ ॥
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सध्ये सिद्धस्व-तरू, तिप्पावारा ति मेहलसिरस्था । एक्केक्कस्स य तरुणो, मूले बसारि चारि ||६४३|| सिद्धाणं परिभाओ, विषिस-पीढाओ रमण मइयाओ ।
वंवण मेरा णिवारियरंस संसार भीडीओ ॥४४॥
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१.प.ज.प. बाहिए । २. व सिद्ध
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म :- ये सब सिद्धार्थ वृक्ष तीन कोटोंसे युक्त और लीग मेखलामोंके ऊपर स्थित होते हैं। इनमें से प्रत्येक वृक्षके मूल भागमें अद्भुत पीठोंसे संयुक्त और वन्दना करने मात्र से ही दुरन्त संसारके भ्रमको नष्ट करनेवाली ऐसी रस्नमय भार-बार प्रतिमाएं सिद्धोंकी होती है ।।६४३-६४४ ॥
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३.ज.प. विमेलमा ।