Book Title: Tiloypannatti Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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गाथा : ३६६ -४०० ]
चरम महाहियारो
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अर्थ :- वहा जिस प्रकार मनुष्योंके मोग होते हैं उसीप्रकार इन तिर्यञ्च भी अपनीअपनी योग्यतानुसार फल कन्द, तृण और अंकुरादिके भोग होते हैं ||३६| वग्धादी भूमिचरा, वायस पहूवी य खेमरा तिरिया । मंसाहारेण विणा भुमंते सुरतस्थ महूर फलं ॥१३९६ ॥
अर्थ :- वहाँ व्याघ्रादिक भूमिचर और काक आदि नभचर तिर्यच्च मांसाहारके दिना कल्पवृक्षोंके मधुर फल भोगते हैं ।। ३९६ ॥
हरिणादि तनवरा तह, भोगमहोए तणाणि विव्याणि । भुति जुस जुगला, उदय-विशेस-प्पहा सये ॥१३६७।।
:- भोगभूमिमें उदयकालीन सूर्यके सदृश प्रभा वाले समस्त हरिरणाविक तृण जीबी पशुओं के युगल दिव्य तृणोंका भोजन करते हैं ।। ३६७॥
सुपमा सुषमा काल ( के वर्णन ) का उपसंहारक भावान करे वशी कालम्मि सुसमसुसमे, व कोडाको डिउयहि उवमम्मि ।
पढमादो
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होयते, उहाक बलद्धि - तेआई' ।। ३६८||
अर्थ :- बार कोड़ा कोड़ी सागरोपम ( प्रमाण ) सुषमासुषमा कालमें पहिले शरीरको
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ऊँचाई, आयु, बस, ऋद्धि एवं तेज आदि होन होन होते जाते हैं ।।३६८॥
सुषमा कालका निरूपण
उच्छे पहूदि खोणे, सुसमो जामेण पविसदे कालो ।
सरस पमाणं सायर उद्यमाणं तिणि कोडिकोडीओ || ३६६॥
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फॅ. ज. प.च. खरा उच्हो ।
श्रचं :- इस प्रकार उत्सेष आदि क्षीण होनेपर सुषमा नामका द्वितीय काल प्रविष्ट होता है । उसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ो सागरोपम है ।। ३६६ ॥
मनुष्यों की प्रायु, उत्सेध एवं कान्ति
सुषस्साविस्मि "णराहो दो पल्ल पमाणाऊ, संपुष्ामियंक सरिस पहा ॥४००॥
| दं ४००० | १ २ ।
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१. ब. क. प. उ.साचारा २४. परकोटा
सहत्त चावाणि ।
1. 8. T. 4. 3. U. ŽEL
४. ६. व.