Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना बहुभाग दृष्टिवादके एक विभाग द्वितीय पूर्व अग्रायणीयसे लिया गया है (धवला, भाग १ प्रस्तावना, अमरावती १९३९-४०)
(३) परिकम्म (परिकर्म ) के कथनसे अपने मतका जो विरोध दिखाई देता है उसका तिलोयपण्णत्तिकारने विवेचन किया है (पृ. ७६५) । संभवतः यह उल्लेख पमनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्दकृत षट्खंडागमके प्रथम तीन खंडोंकी टीकाका हो । (धवला, भाग १, प्रस्तावना पृ. ३१, ४६-४८) । पं. महेंद्रकुमारजीने संदेह व्यक्त किया है कि क्या परिकर्म कोई गणित शास्त्रका ग्रंथ था ( जयधवला १, प्रस्तावना पृ. ३६)।
(४) मूलायार ( मूलाचार ) के मतका उल्लेख ८-५३२ में किया गया है और हम उसे वर्तमान मूलाचार ग्रंथके पर्याप्त्यधिकार, ८० में पाते भी हैं।
(५) लोयविणिच्छय ( लोकविनिश्चय ) का उल्लेख ग्रंथ रूपसे कोई एक दर्जन वार आया है- (४.१८६६, १९७५, १९८२, २०२८, ५-६९, १२९, १६७, ७-२०३; ८.२७०, ३८६, ९-९)। इस नामका कोई ग्रंथ अभी तक प्रकाशमें नहीं आया । संभव है यही वह ग्रंथ रहा हो जिसके आदर्शपर अकलंकने अपने सिद्धिविनिश्चय व न्यायविनिश्चय मादि ग्रंथोंका नामाभिधान किया हो ।
(६) लोयविभाग ( लोकविभाग ) का उल्लेख कोई पांच वार आया है (१-२८१, ४-२४४८, २४९१, ७-११५, ८-६३५]। ये उल्लेख अग्गायणी (४-२४४८) और लोयविणिच्छय (९-९) के साथ साथ हुये हैं; उनके प्रकरण विशेषके रूपसे नहीं । वर्तमानमें लोकविभाग नामक संस्कृत ग्रंथ ११ अध्यायोंमें सिंहसूरिकृत उपलब्ध है । ग्रंथकर्ताने सूचित किया है कि उनकी संस्कृत रचना एक प्राकृत ग्रंथका रूपान्तर मात्र है, जिसे शक ३८० (+७८) = १५८ ईस्वीमें सर्वनन्दिने कांचीके नरेश सिंहवर्माके राज्यके २२वें वर्षमें बनाया था। सर्वनन्दिकृत ग्रंथ वर्तमानमें प्राप्य नहीं है। तिलोयपण्णत्तिमें कथित मतोंका संस्कृत लोकविभागसे मिलान करके पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारने ठीक ही अनुमान किया है कि तिलोयपण्णत्तिकारके सन्मुख सर्वनन्दिकृत प्राकृत लोकविभाग रहा होगा।
(७) लोगाइणि (लोकायनी ) का उल्लेख ( थोड़े वर्णभेदके साथ ) दो वार आया है (१-२४४, ८-५३० ) जहां उसके विषय व मतोंका उल्लेख किया गया है। उसे ' ग्रंथप्रवर ' कहा गया है जिससे उसकी प्रामाणिकता और माहात्म्य प्रकट होता है ।
तिलोयपण्णत्तिमें जो उल्लेख मूलाचार व लोकविभागके आये हैं उनका विषय वर्तमान मूलाचार व संस्कृत लोकंविभागमें पाया जाता है । इस बातसे तिलोयपण्णत्तिके इन उल्लेखोंकी सचाई बढ़ जाती है । अतएव हमें लोकविनिश्चय, लोकविभाग (प्राकृत ) नादि
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