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वकुश और प्रति सेवना कुशीलको छै लेश्या होती है निर्गन्ध वस्त्रादि उपकरण वाले हैं अतः उन्हें कभी उपकरणों में सक्ि होना भी सम्भावित है । जब निर्गन्थ को श्रासक्ति होती है तब ध्यान होता है कृष्णादि तीन लेश्यायें होती है
( चारित्र सार, व विद्वज्जन पृ० १७९ )
शारांश - जैन मुनि का असली नाम “निर्गन्थ" है । जो उक्त दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार वस्त्रादि युक्त, किन्तु उनमें मूर्छा रहित ही होता है, अतः वह निर्गन्थ माना जाता है ।
श्वेताम्बर जैन मुनियों का सर्व प्रथम संघ “निर्गन्थ गच्छ " है और दिगम्बर का सर्व प्रथम संघ "मूल संघ" है । इससे भी स्पष्ट है कि निर्गन्ध यह संकेत शुरु से आज तक वस्त्र धारी श्रमणों के लिये उपयुक्त है ।
भूलना नहीं चाहिये कि जिनागम जैन तीर्थ और निर्गन्ध गच्छ की संपत्ति (वारसा ) श्वेताम्बर संघ को ही प्राप्त हुई है । दिगम्बर संघ इन लाभों से वंचित रहा है ।
दिगम्बर - श्री उमास्वाती महाराज भी नग्नता माने अचेल परिषह मानते हैं इससे ही दिगम्बरत्व साध्य है ।
'जैन यह परिषह तो वस्त्र के ही पक्ष में है क्षुधा और पिपासा के सद्भाव मैं आहार और पानी की आवश्यकता होने पर भी प्रासुकता आदि के कारण श्राहार पानी न मिले या अल्प प्रमाण में मीले, तो भी काम चला लेवे दुःख न माने और संतुष्ट रहे इस परिस्थीति में वहाँ क्षुत, पिपासा परिषद माने जाते हैं, जो संवर रूप हैं। और आहार पानी को छोडकर बैठ जाना, वह तपस्या मानी जाती है, जो निर्जरा का कारण रूप है । वैसे staratataता होने पर भी निर्दोष न मिलने के कारण
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