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की ग्यारह प्रतिमाएं पाली जाती है इसके आगे के दरजे साधु के लिये है । यही श्रावक जब प्रत्याख्यानावरण कषाय का ( जो साधु व्रत को रोकते है ) उपशम कर देता है। और संज्वलन व नौं कषाय का ( जो पूर्ण चारित्र को रोकती है ) मंद उदय साथ २ करता है तब पाँचवें से सातवें गुण स्थान अप्रमत्त विरत में पहुँच जाता है छठे में चढ़ना नहीं होता है इस सातवे का काल अन्तर्मुहूर्त का है यहाँ ध्यान अवस्था होती है फिर संज्वलनादि तेरह कषायों के तीव्र उदय से प्रमतविरतनाम छठे गुण स्थान में आ जाता है।
(श्रा कुंद कुन्द कृत पंचास्ति काय गा० १३१ की भाषा टीका, खंड २ पृ०७३)
इस पाठ से सिद्ध है कि गृहस्थ छठे सातवे गुण स्थान का अधिकारी है, एवं तेरहवें गुण स्थान का भी अधिकारी है। भरत चक्रवर्ती न गृहस्थ वेष में ही कंवल भान पाया है । __दिगम्बर--दिगम्बर श्राचार्य भरत चक्रवर्ती के कवल ज्ञान के बारे में कुछ और ही समाधान करते हैं ।
1-योपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गता भरतचक्री, सोपि जिनदीक्षां गृहीत्वा, विषय कषाय निवृत्ति रूप लक्षणमात्रं व्रतपरिणामं कृत्वा पश्चात् "शुद्धोपयोग" रूप रत्नत्रयात्मके "निश्चयवता"ऽभिधाने वीतराग सामायिक संज्ञ निर्विकल्प समाधौ स्थित्वा, केवलज्ञानं लब्धवानिति । परं तस्य स्तोककालत्वात् लोका "व्रतपरिणाम" न जानन्ति।
(द्रव्य संग्रह वृहद् वृत्ति ) २-येपि घाटकाद्वयेन मोक्षं गता 'भरतचक्रवादयस्तेपि निर्गन्थरूपेणैव । परं किन्तु तेषां परिग्रहत्यागं लोका न जानन्ति स्तोककालत्वादितिभावार्थः । एवं भावलिंग रहितानां द्रव्यलिंग मात्र माक्षकारणं न भवति ॥
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