Book Title: Shvetambar Digamber Part 01 02
Author(s): Darshanvijay
Publisher: Mafatlal Manekchand Shah

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Page 257
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ जैन-जैसे २२ तीर्थंकरों के शासन के ४ महाव्रत और १ व २४ घे तीर्थकरके ५ महाव्रत में वास्तविक फर्क नहीं है, वैसे इन १६ कारण और २० स्थानकमें भी कोई वास्तविक फर्क नहीं है, परस्पर समन्वय किया जाय तो दोनों में अभेदता ही पायी जाती है। उन सबका परमार्थ यह एक ही है किजो होवे मुज शक्ति इसी, सवि जीव करुं शासन रसी। शुचिरस ढलते तिहां बांधता, तीर्थकर नाम निकाचता ॥१॥ दिगम्बर-दिगगम्बर मानते हैं कि सभीतीर्थकरके'५ कल्याणक होते हैं, मगर कोसीर तीर्थकरके ३यार कल्याणक भी होते हैं । ( दोलतरामजी कृत आदिपुराण ५० ४७ की वचनीका पृ० २४१ पं० सदासुखजीकृत रत्नकरंडश्रावकाचार भाष वचनीका षोडशभावना विवेचन पृ०२४१ पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ कृत चर्चासागर समीक्षा पृ० २४९) जैन--जब ५ कल्याणक भी अनियत हैं। यदि ५ कल्याणक ही अनियत है तब तो तीर्थकर पद् पानेके कारण स्वप्न इन्द्र इन्द्रका वाहन और अतिशय वगेरह भी अनियत हो जाते हैं। इस हालतमें तो कारण १६ है या २०, स्वप्न १६ हैं या १४, इन्द्र १०० आते हैं या ६४, इन्द्रका वाहन ऐरावण है या पालक, जन्म के अतिशय १० है या ७ इत्यादि चर्चा ही बेकार हो जाती है। ___ आश्चर्य की बात है कि-तीर्थकर तो होने मगर उनके च्यवन आदिका पत्ता भी न चले, देव-देवीयों जन्मोत्सव भी न करे, एवं कई कल्याण भी न मनाये जायँ, इसे तो विवेकी दिगम्बर भी शायद ही सत्य मान सकते हैं। दिगम्बर शास्त्र तो महाविदेह क्षेत्र के तीर्थकर व उन की संख्या को नीयत रूपमें ही जाहिर करते हैं। जैसा कि तित्थ ऽद्ध सयलचक्की, सद्विसयं पुह वरेण अवरेण । वीसं वीसं सयले, खेत्ते सत्तरिसय वरदो ॥६८१।। ( नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ति कृत त्रिलोकसार ) (सिध्धांत सार, चर्चा समीक्षा पृ० ८.) महानुभाव ? तीर्थंकरपदका तो तीसरे भवसे ही नीयत हो जाता है, उनके ५ कल्याणक अवश्य होते हैं व अवश्य मनाये जाते है। For Private And Personal Use Only

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