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स्थान की अधिकारिणी थी, श्रावक (ब्रह्म० एलक क्षुल्लक श्रादि ) और श्राविका को पाँचवाँ गुण स्थान होता है।
५-राजामती की दीक्षा ( पर्व ५६ श्लो० १३० से १३१) द्रौपदी दीक्षा प्रयाण ( १० ६३ श्लो० ७८) धन श्री मित्र श्री की दीक्षा ( प० ६४ श्लो० १३) कुन्नी द्रोपदी सुभद्रा आदि की दीक्षा (५० ६४ श्लो० १४४ ) जय कुमार मुनि १२ अंगपढ़ा, और सुलो. चना आर्या , अंग पढी ( पर्व १२ श्लो० ५२ ) तीर्थकर की आर्यिका की संख्या (५० १० श्लो० ५१-७८ )
(भा द्वि. जिनसेन कृत हरिवंश पुराण ) ५-सम्यक् दर्शन संशुद्धाः, शुद्धैक बसना वृताः । सदस्रशो दधुः शुद्धाः नार्य स्तत्रायिंका व्रतम् ।। १३३ ॥
अशुद्धवंश की उपजी सम्यक् दर्शनकार शुद्ध कहिजे । निर्मल श्रर शुद्ध कहिए श्वेत वस्त्र की धरनहारी हजारों रानी अर्यका
भई।
(जिनवाणी कार्यालय-कलकत्ता से मुद्रित पं. दौलतराम जैपुर निवासी कृत हरिवंश पुराण स० २, श्लो० १३३ की वचनिका, पृ० २३-१८) __६-वसुदेव की पत्नी प्रियंगुसुन्दरी ने जिनदीक्षा ली थी। ७-अनंग सना नाम की वेश्या ने वेश्यावृत्ति को छोड़कर जिनदीक्षा ली और स्वर्ग को गई। --ज्येष्ठा आर्यिका ९-शिवभूति ब्राह्मण की पुत्री देववती के साथ शम्भु ने व्यभिचार किया, बाद में वह भ्रष्ट देववती विरक्त होकर हरिकांता अर्जिका के पास दक्षिा लेकर स्वर्ग गई।
दिगम्बरीय द्रव्यानुयोग शास्त्रों के प्रमाण१-दिगम्बरों के नन्दीगण पुन्नागवृक्ष और मूलसंघ के अनुयायी यापनीय संघवाले "यथायापनायतंत्र" डंके की चोट
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