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[ १९९.] वृत्तिकरण के प्रथम भाग तक होते हैं।
( गोम्म० जीवकांड गा० ६८४ । अनिर्वृति गुण स्थान में मैथुन विच्छेद होता है
(गोम्म० जीव० गा० ७०.) मणुसिणि पमत्त विरदे, आहार दुगं तु णन्थि रिणयमेण । अवगद वेदे मणुसिरिण, सरणा भूद गदिमाऽऽसेज्ज ॥ ७॥४॥
मनुषिणी जब प्रमत्त गुण स्थान में होती है तब उसे आहार द्विक तो कतई होता ही नहीं है । और नवम गुण स्थान के ऊपर अवेदी हो जाती है तब भी वो भूतगति न्याय से " मनुषिणी" संज्ञा वाली रहती है।
(गोम्मट सार, जीवकाण्ड गा० ७१४) वेद से आहार तक की १० मार्गणा वाले ऊपर के गुणस्थान को प्राप्त करते हैं मगर विशेषता इतनी है कि नपुंमक और स्त्री छठे गुण स्थान में आहारद्विक का नहीं पाते हैं।
(गोम्मटसार जीव गा० ७२३ ) गोम्मटग्मार के कथन का सारांश यह है कि पुरुष स्त्री और नपुंसक ये सब क्षपकश्रेणी द्वारा मोक्ष में जाते हैं. किन्तु फरक इतना ही है कि स्त्री और नपुंसक को आहारक द्विक नहीं होता है स्वस्ववेदकषाय का क्षय पुंवेद के क्षय के पूर्व ही हो जाता है, स्त्री और नपुंसक की संज्ञा अवेदी दशा में भी उन्हें दी जानी है और नार्थकर पद नहीं होता है।
६-पा० कुन्द कुन्दजी ने "बोध प्राभूत" गा० ३३ में "ए" बताया है। उसकी "श्रुतसागरी” टीका में लिखा है कि वेए- स्त्री; पु० नपुंसक वेदत्रय मध्ये ऽहंतः कोपि वेदो नास्ति __ अरिहंत वेदरहित है (पृ० १०१) माने स्त्री पुरुष और नपुंसक ये तीनों वे गुण स्थान के बाद अबेदी कहे जाते हैं और अवेदी ही मोक्ष के अधिकारी है।
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