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जैन-इन अतिशयों के चुनाव में एक बडी कमी है किजिनको हरगीज नही छोड़ना चाहिये ऐसे ८ प्रतिहार्य छोड़ दिये गये है, संभव है कि कवलाहार का अभाव इत्यादि कल्पित अतिशयों ने उनका स्थान ले लिया है और उनको कम कर दिया गया है । मगर यह ठीक नहीं है । आखीर में उनको दूसरे रूप में स्वीकार करना ही पड़ता है । इसलिये उनको अतिशयों में ही रखना उचित था । इसके अलावा यह भी कमी है कि चतुर्मुखता
और नख केश बढ़े नहीं ये अतिशय केवल ज्ञान के बताये हैं जो देवकृत होने चाहिये, और अर्धमागधीभाषा जिसका सम्बन्ध सर्वविद्या में प्रभुत्व के साथ है वह और सर्वजीवों से मैत्री ये अतिशय देवकृत बताये है माने तीर्थकर की वाणी को देव के अधीन और "अहिंसा प्रतिष्ठायांतत्सिन्निधौ वैरत्यागः" ऐसी शक्ति को देवशक्ति बताई है किन्तु ये अतिशय तो केवल ज्ञान के ही होने चाहिये।
आचार्य यति वृषभने भी दिव्यध्वनि को तिलोवपन्नति पर्व ४ श्लोक ९०४ में केवल ज्ञान का अतिशय माना है, और आ० पूज्यपादने भी "सर्वभाषा-स्वभावकम्" से दिव्यध्वनि को स्वाभाविक अतिशय रूप माना है ।
नतीजा यह है कि-ये ३४ अतिशय वास्तविक नहीं है इनमें कुछ कल्पना है, कुछ कम वेशी है और कुछ अव्यवस्था भी है ।
दिगम्बर-तव तो तीर्थकरों के ३४ अतिशय संभवतः श्वेताम्बर शास्त्रोक्त ठीक माने जायेंगे। वे ये है
जन्म के ४ अतिशय-१ रज रोग और पसीना आदि से रहित सागसुन्दर देह, २ सफेद खून और मांस, ३ गुप्त (अदृश्य) आहार और गुप्त निहार, ४ सुगन्धि श्वासोश्वास ।
घातिकर्मक्षय (केवलज्ञान) के ११ अतिशय-५ योजनप्रमाण समवसरण में कोटाकोटी प्रमाण पर्षदा का समावेश, ६ वाणी का मेघ की वर्षा के समान श्रोताओं की भाषा में परिणमन, और उसके द्वारा बोधकथन *७ पच्चीस २ योजन तक पुराने रोगों
* इसामसीह व उसके शिष्यों की वाणीमें भी एसाही भाषा परिणमन माना गया है। अम्माल पुस्तक में लीखा है कि
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