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आर्यखंड सिवाय के सब खण्डो को भी अकर्मभूमि मानते हैं, इस हिसाब से सारा ही आर्यखण्ड कर्मभूमि-धर्मभूमि हो जाता है। देखिये पाठ- भरहैरावयविदेहेसु विणीत सण्णिद् मज्झिम खंडं मोत्तण सेस पंचखंड विणिवासी मणुओ पत्थ अकम्मभूमिओ त्ति विवक्खिओ। तेसु धम्मकम्म पवुत्तीए असंभवेण तब्भावो ववत्तीदो। ___ "भरत ऐरवत और विदेहक्षेत्रो में "विनीत" नाम के मध्यमखंड (आर्य खण्ड) को छोड़कर शेष पांच खण्डो का विनिवासी (कदीमी वाशीदा) यहां 'अकर्मभूमिक' इस नाम से विवक्षित है, क्यों कि उन पांच खडों में धर्म कर्म की प्रवृत्तियां असंभव होने के कारण उस अकर्मक भावकी उत्पत्ति होती हे"
(जयधवला टीका-अनेकान्त, व० २ कि० ३ पृ० १९९) इस हालतमें आर्यखण्डके अनार्य देशोमें विश्वोपकारी जग. पूज्यके तपस्याकालीन विहारका एकान्त अभाव मानना वह ठीक नहीं है।
दिगम्बर-दिगम्बर मानते हैं कि-तीर्थ करभगवान् नग्न ही होते है किन्तु अतिशयके कारण वे नग्न दीख पडते नहीं है।
जैन-तीर्थ करोको ३४ अतिशय होते हैं उनमें एसा कोई भी अतिशय नहीं है कि जो नग्नता को छीपाते हो।
वास्तविक बात यही है कि-तीर्थंकर भगवान् देवदुष्यवाले होते हैं अत एव नग्न दीख पडते नहीं है, तो संभव है कि दिगम्बर का वह अतिशय यह "देवदाय" ही है, जिसकी विद्यमानता में दोनों सम्प्रदायकी" तीर्थकर भगवान् नग्न दीख पडते नहीं है" इस मान्यता का माकुल समाधान हो जाता है।
तीर्थकर भगवान् वस्त्रधारी भी होते हैं, आहार लेते हैं, निहार करते हैं, तपस्या करते हैं, साक्षरी वानी बोलते हैं, विहार करते हैं, और उनके शरीरका देव अग्नि संस्कार करते हैं इत्यादि वाते पहिले सप्रमाण बताई गई है।
दिगम्बर-श्वेताम्बर मानते हैं कि-भगवान् ऋषभदेव का केवल
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