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कूष्माण्डं स्यात् पुष्पफलं पीतपुष्पं बृहत्फलम् ॥५३॥ कूष्माडं बृहणं वृष्यं गुरुपितास्रवातनुत् । बालं पित्तापहं शीतं मध्यमं कफकारकम् ॥५४॥ वृद्धं नाति हिमं स्वादु सक्षारं दीपनं लघु । बस्तिशुद्धिकरं चेतो रोगहृत्सर्वदोषजित् ॥५५॥ कूष्माण्डी तु भृशं लध्वी, कर्कारपि कीर्तिता । कर्कारु ग्राहिणी शीता, रक्तपित्तहरी गुरुः ॥५६॥ पक्का तिक्ता निजननी सक्षारा कफवातनूत् ॥५७॥
कोला-पित्त रक्त और वायु दोषको हरता है । छोटा कोला पित्तनाशक शीतल और कफजनक है। बड़ा कोला उष्ण मीठा दीपक बस्तिशुद्धिकारक हृदयरोग का नाशक और सर्व दोषों का नाशक है। छोटा कोला ग्राहक शीतल रक्तपित्त दोषनाशक और पक्का हो तो अग्निवर्धक है।
( भावप्रकाश निघण्टु शाकवर्ग) (४) मांस के गुण-दोष
मांस-स्निग्धं उष्णं गुरु रक्तपित्तजनक वातहरं च ।। सर्व मांसं वातविध्वंसि वृष्यं ॥ मांस खूनकी विमारी और पित्त विकार को बढाने वाला है।
अब भगवान महावीर स्वामीके दाह रोग के जरिये शोचा जाय तो निर्विवाद् सिद्ध है कि-यहाँ १ कपोत जानवर का मांस सर्वथा प्रतिकुल है, २ पारापत वनस्पति मध्यम हैं ३ पारिस भी मध्यम है, और ४ कोलाफल ही अधिक उपयोगी है।
साथ साथ में यह भी सिद्ध है रेवती श्राविकाने जो "दुवे कवोय सरीरा' रक्खे थे, वे जानवर वनस्पति या पारिशफल नहीं किन्तु कोलाफल के मुरबे ही थे। - भगवतीसूत्र के प्राचीन चूर्णीकार और टीकाकारोने भी उक्तपाठ का अर्थ "कूष्मांड" फल ही लीया है । जैसा कि
कपोतकः पक्षिविशेषः तद्वद् ये फले वर्णसाधात् ते कपोते
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